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244: प्राकृत व्याकरण
प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'प्र+ह्न के स्थान पर 'पहर' की भी प्राप्ति होगी। दोनों धातु-रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- प्रहरति-सारइ अथवा पहरइ = वह प्रहार करता है - वह चोट करता है ।।४-८४ ।।
अवतरेरोह - ओरसौ ।।४-८५ ।।
अवतरतेः ओह ओरस इत्यादेशौ वा भवतः ।। ओह । ओरसइ । ओअरइ ||,
अर्थः- 'नीचे उतरना' अर्थक संस्कृत धातु 'अव + तृ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'ओह तथा ओरस' ऐसे दो धातु की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'अव+तृ' धातु के स्थान पर 'ओअर' धातु की भी प्राप्ति होगी। उदाहरण यों हैं: अवतरति = (१) ओहइ, (२) ओरसइ और (३) ओअरइ = वह नीचे उतरता है ।। ४-८५।। शकेश्चय - तर - तीर - पाराः ।।४-८६ ।
शक्नोतेरते चत्वार आदेशा वा भवन्ति ॥ चयइ । तर । तीरइ । पारइ । सक्कइ । त्यजतेरपि चयइ । हानिं करोति ।। तरतेरपि तरइ ।। तीरयतेरपि तीरइ ।। पारयतेरपि पारे । कर्म समाप्नोति ।।
अर्थः-'सकना-समर्थ होना' अर्थक संस्कृत धातु 'शक्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से चार धातु की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) चय, (२) तर, (३) तीर और (४) पार । पक्षान्तर में 'शक्' के स्थान पर 'सक्क' की भी प्राप्ति होगी। पाँचों धातु-रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:-- शक्नोति = (१) चयइ। (२) तरइ, (३) तीरइ, (४) पारइ और (५) सक्कइ = वह समर्थ होता है। उपर्युक्त आदेश प्राप्त चारों धातु द्वि-अर्थक है, अतएव इनके क्रियापदीय रूप इस प्रकार से होंगे :- (१) त्यजति = चयइ = वह छोड़ता है अथवा वह हानि करती हैं (२) तरति=तरइ-वह तैरता है। (३) तरीयति=तीरइ = वह समाप्त करता है अथवा वह परिपूर्ण करता है। और (४) पारयति - पारेइ-वह पार पहुँचा है अथवा पूर्ण करता है-कार्य की समाप्ति करता है। यों चारों आदेश प्राप्त धातु द्वि-अर्थक होने से संबंधानुसार ही इनका अर्थ लगाया जाना चाहिये; यही तात्पर्य वृत्तिकार का है ।।४-८६ ।।
फक्कस्थक्कः ।।४-८७।।
फक्कते स्थक्क इत्यादेशो वा भवति ।। थक्कइ ॥
अर्थः- 'नीचे जाना' अर्थक संस्कृत धातु 'फक्क' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'थक्क' धातु की आदेश प्राप्ति होती है । जैसे-- फक्कति = थक्कइ = वह नीचे जाता है अथवा वह अनाचरण करता है ।। ४-८७ ।।
श्लाघः सलहः ।।४-८८ ।।
श्लाघते : सलह इत्यादेशो भवति ।। सलहइ ।
अर्थः- 'प्रशंसा करना' अर्थक संस्कृत धातु 'श्लाघ्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'सलह' धातु की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे :- श्लाघते - सलहइ - वह प्रशंसा करता है ।। ४-८८ ।।
खचेर्वे अङः ||४-८९।।
खचते अड इत्यादेशो वा भवति ।। वेअडइ । खचइ ||
अर्थः-‘जड़ना' अर्थक संस्कृत धात, 'खच्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'वेअड' धातु की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में 'खच' भी होगा जैसे:- खचति = वेअडइ अथवा खचइ वह जड़ता है- जमाता है ।। ४-८९ ।। पचे: सोल्ल- पउलौ ।।४-९०।।
पचते: सोल्ल पउल इत्यादेशौ वा भवतः ।। सोल्लइ । पउलइ । पयइ ||
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