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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 93 द्वितीय रूप-(तस्याः-) तीस में 'ती' अंग की प्राप्ति का विधान उपर्युक्त रीति से एवं तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-६४ से प्राप्तांग 'ती' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में से प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप तीसे सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप से छटे रूप तक-(तस्याः ) तीअ, तीआ, तीइ और तीए में 'ती' अंग की प्राप्ति का विधान उपर्युक्त रीति से एवं तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-२९ से प्राप्तांग 'ती' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'अ-आ-इए' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से तीअ, तीआ, तीइ और तीए रूप सिद्ध हो जाते हैं। ३-६४॥
डे हे डाला इआ काले।। ३-६५।। किंयत्तद्रयः कालेऽभिधेये डे: स्थाने आहे आला इति डितो इआ इति च आदेशा वा भवन्ति। हिं स्सि म्मित्थानामपवादः। पक्षे ते पि भवन्ति ।। काहे। काला। कइया।। जाहे। जाला। जाइया। ताहे। ताला। तइया।।
ताला जाआन्ति गुणा जाला ते सहिअएहिँ घेप्पन्ति। पक्षे। कहिं। कस्सि। कम्मि। कत्थ।।
अर्थः- जब 'किम्, यद् और तद्' शब्द किसी कालवाचक शब्द के विशेषण रूप हो; तो इनके प्राकृत-रूपान्तर में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'डि-इ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से और क्रम से डाहे, डाला और इआ' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। प्राप्त-प्रत्यय 'डाहे और डाला' में स्थित ड्' इत्संज्ञक है; अतएव प्राकृत में प्राप्तांग 'क, ज और 'त में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' की इत्संज्ञा होकर इस 'अ' का लोप हो जाता है; एवं तत्पश्चात् शेषांग हलन्त 'क्, ज् और त्' में उक्त प्रत्यय के रूप में 'आहे और आला' (प्रत्ययों) की संयोजना होती है। इसी तृतीय पाद के सूत्र-संख्या ३-६० और ३-५९ में क्रम से यह विधान निश्चित किया गया है कि संस्कृत सप्तमी विभक्ति के एकवचन में प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'हिं, स्सि, म्मि और त्थ' प्रत्यायों की आदेश प्राप्ति होती है; तदनुसार उक्त सूत्र-संख्या ३-६० और ३-५९ के प्रति इस सूत्र (३-६५) को अपवाद रूप सूत्र समझना चाहिये। पक्षान्तर में हिं, स्सि, म्मि और स्थ' प्रत्ययों का अस्तित्व भी है: ऐसा ध्यान में रखना चाहिये। उदाहरण इस प्रका __कस्मिन् (किस समय में) काह, काला, कइआ और पक्षान्तर से कहि, कस्सि, कम्मि और कत्था यस्मिन् (जिस समय में) जाहे, जाला और जइआ; पक्षान्तर में जहिं, जस्सिं, जम्मि और जत्थ (भी होते हैं)। तस्मिन् (उस समय में)=ताहे, ताला और तइआ एवं पक्षान्तर में तहिं, तस्सि, तम्मि और तत्थ (भी होते हैं)।
किसी ग्रन्थ-विशेष के ग्रन्थ-कर्ता ने अपने मन्तव्य को स्पष्ट करने के लिये निम्नोक्त छन्दांश को वृत्ति में उद्धृत किया
संस्कृतः- तस्मिन् जायन्ते गुणाः यस्मिन् ते सहृदयैः गह्यन्ते। प्राकृत रूपान्तरः- ताला जाअन्ति गुणा जाला ते सहिअएहिं घेप्पन्ति।
हिन्दी-भावार्थ:- उस समय गुण (वास्तव में गुण रूप) होते हैं; जिस समय में वे (गुण) सहदय पुरुषों द्वारा ग्रहण किये जाते हैं। (अथवा स्वीकार किये जाते हैं)।
इस दृष्टान्त में 'त'और 'ज' शब्द समय-वाचक-स्थिति के द्योतक हैं; इसीलिये इनमें सूत्र-संख्या ३-६५ के विधानानुसार 'डाला=आला' प्रत्यय की संयोजना की गई है; यों अन्यत्र भी समझ लेना चाहिये।
कस्मिन् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त (समय स्थित-बोधक) विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप काहे, काला, कइआ, कहि, कस्सि, कम्मि और कत्थ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-७१ से मूल संस्कृत शब्द 'किम्' के स्थान पर प्राकृत में 'क' अंग की प्राप्ति और ३-६५ से प्राप्तांग 'क' में (समय-स्थित-बोधकता के कारण से) सप्तमी-विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'डाहे-आहे' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होकर प्रथम रूप काहे सिद्ध हो जाता है।
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