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________________ 94 : प्राकृत व्याकरण द्वितीय और तृतीय रूप 'काला एवं कइआ' में मूल 'क' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार एवं तत्पश्चात् सूत्र - संख्या ३ - ६५ से प्रथम रूप के समान ही क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से 'डाला = आला और इआ ' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होकर काला और कइआ रूप सिद्ध हो जाते हैं। चतुर्थ रूप 'कहीं' की सिद्धि सूत्र संख्या ३ - ६० में की गई है। 'कस्सि' में 'क' अङ्ग की प्राप्ति का विधान उपर्युक्त रीति अनुसार एवं तत्पश्चात् सूत्र - संख्या ३ - ५९ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि =ई' के स्थान पर प्राकृत में 'प्रिंस' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पंचम रूप कस्सि सिद्ध हो जाता है। समान ही सूत्र - संख्या ३-५९ के विधान से 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर छट्टा 'कत्थ' में भी उपर्युक्त पंचम रूप के समान ही सूत्र - संख्या ३ - ५९ के विधान से 'त्थ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सप्तम रूप कत्थ सिद्ध हो जाता है। 'कम्मि' में भी उपर्युक्त पंचम रूप रूप कम्मि सिद्ध हो जाता है। यस्मिन् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त (समय-स्थित-बोधक) विशेषण रूप है इसके प्राकृत रूप जाहे, जाला और होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १ - २४५ से मूल संस्कृत शब्द 'यद्' में स्थित 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; १ - ११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'द्' का लोप और ३ - ६५ से प्राप्तांग 'ज' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि=इ' के स्थान पर प्राकृत में 'डाहे आहे' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप जाहे सिद्ध हो जाता है। जाला में 'ज' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि-विधान के अनुसार एवं तत्पश्चात् सूत्र - संख्या ३-६४ से प्रथम रूप के समान ही 'आला' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप जाला सिद्ध हो जाता है। जइया में 'ज' अंग की प्राप्ति का विधान उपर्युक्त रीति अनुसार एवं तत्पश्चात् सूत्र - संख्या ३ - ६५ से प्रथम-द्वितीय रूपों के समान ही 'इआ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तृतीय रूप जइआ भी सिद्ध हो जाता है। तस्मिन् संस्कृत सप्तमी एकवचनान्त (समय-स्थित- बोधक) विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप ताहे, ताला और तइआ होते हैं। इनमें सूत्र- संख्या १ - ११ से मूल संस्कृत शब्द ' तद्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप और ३-६५ से प्राप्तांग 'त' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर क्रम से 'डाहे = आहे; डाला=आला और इआ' प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होकर तीनों रूप ताहे, ताला और तइआ सिद्ध हो जाते हैं। 'ताला' रूप की सिद्ध इसी सूत्र में ऊपर की गई है। जायन्ते संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप जाअन्ति होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'य्' का लोप और ३-१४२ से वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के बहुवचन में संस्कृत आत्मनेपदीय प्रत्यय 'न्ते' के स्थान पर प्राकृत में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति जाअन्ति रूप सिद्ध हो जाता है। 'गुणा' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - ११ में की गई हैं 'जाला' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २६९ में की गई है। 'ते' (सर्वनाम) रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २६९ में की गई है। 'सहिअएहि' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २६९ में की गई है। 'घेप्पन्ति' रूप की सिद्धि सत्र - संख्या १ - २६९ में की गई है । । ३ - ६५ ।। ङसे म्ह।।३-६६॥ किंयत्तद्वयः परस्य उसे: स्थाने म्हा इत्यादेशो वा भवति ।। कम्हा। जम्हा । तम्हा। पक्षे । काओ । जाओ । ताओ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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