________________
प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 147 'मालाहिन्तो' और मालासुन्तो रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१२४ में की गई है।
अग्निभ्यः संस्कृत पंचमी बहुवचनान्त पुलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप अग्गीहिन्तो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से मूल शब्द 'अग्नि' में स्थित 'न्' व्यंजन का लोप; २-८९ से लोप हुये 'न' व्यञ्जन के पश्चात् शेष रहे 'ग' को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति; ३-१६ से प्राप्त रूप अग्नि में स्थित अन्त्य हस्व स्वर इ के आगे पंचम विभिक्ति के बहुवचन में प्रत्यय का सद्भाव होने से लोप दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति और ३-९ से तथा ३-१२४ के निर्देश से प्राप्त रूप अग्गी में पंचमी विभक्ति के बहुवचन में प्राकृत में “हिन्तो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अग्गीहिन्तो रूप सिद्ध हो जाता है। 'मालाओ 'मालाउ' और 'मालाहिन्तो' रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१२४ में की गई है। अग्गीओ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१२५ में की गई है।।३-१२७।।
__ ढेर्डेः ॥३-१२८॥ आकारान्तादिभ्यो दन्तवत् प्राप्तो उडे न भवति।। अग्गिम्मि। वाउम्मि। दहिम्मि। महुम्मि।।
अर्थः- प्राकृत भाषा के सप्तमी विभक्ति के एकवचन में सूत्र-संख्या ३-११ के अनुसार अकारान्त शब्दों में संस्कृत प्राप्त 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में प्राप्त होने वाले 'डे=ए' की प्राप्ति आकारान्त, इकारान्त, उकारान्त शब्दों में नहीं हुआ करती है। इन आकारान्तादि शब्दों में सूत्र-संख्या ३-१२४ के निर्देश से केवल एक प्रत्यय 'म्मि' की ही सप्तमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार है:- अग्नौ-अग्गिम्मि-अग्नि में; वायौ-वाउम्मि; दघ्नि अथवा दधनि-दहिम्मि-दही में और मधुनि-महुम्मि-मधु में; इत्यादि। ___ अग्नौ संस्कृत सप्तमी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप अग्गिम्मि होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से मूल शब्द अग्नि में स्थित 'न्' व्यंजन का लोप; २-८९ से लोप हुए 'न् के पश्चात् शेष रहे हए 'ग्' व्यंजन को द्वित्व
प्राप्तिः तत्पश्चात सत्र-संख्या ३-११ से और ३-१२४ के निर्देश से प्राप्त रूप अग्गि में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अग्गिम्मि रूप सिद्ध हो जाता है। ___ वायौ संस्कृत सप्तमी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप वाउम्मि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल शब्द वायु में स्थित 'य् व्यंजन का लोप; तत्पश्चात् प्राप्त रूप वाउ में सूत्र-संख्या ३-११ से और ३-१२४ के निर्देश से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि=इ' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वाउम्मि रूप सिद्ध हो जाता है। 'दहिम्मि' और 'महुम्मि' रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१२४ में की गई है।।३-१२८।।
एत्।। ३-१२९॥ आकारान्तादीनामर्थात् टा-शस्-भिस्-म्यस्-सुप्सु परतो दन्तवत् एत्वं न भवति।। हाहाण कय। मालाओ पेच्छ।। मालाहि कयां मालाहिन्तो। मालासुन्तो आगओ।। मालासु ठि।। एवं अग्गिणो। वाउणो। इत्यादि।
अर्थः- अकारान्त शब्दों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में; द्वितीया विभक्ति के एकवचन में, तृतीया विभक्ति के बहुवचन में, पंचमी विभक्ति के बहुवचन में और सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में सूत्र-संख्या ३-१४ से तथा ३-१५ से उक्त विभिक्तियों से संबंधित प्रत्ययों की प्राप्ति के पूर्व अकारान्त शब्दों में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर जैसे 'ए' स्वर की प्राप्ति हो जाती है; वैसी 'ए' की प्राप्ति इन आकारान्त, इकारान्त, उकारान्त आदि पुल्लिंग अथवा स्त्रीलिंग शब्दों में स्थित अन्त्य स्वर 'आ, इ, उ' आदि के स्थान पर सूत्र-संख्या ३-१२४ के निर्देश से उक्त विभक्तियों के प्रत्ययों की प्राप्ति होने पर नहीं हुआ करती है। उदाहरण इस प्रकार हैं:- हाहा कृतम्-हाहाणं कयं-गन्धर्व से अथवा देव से किया गया है; इस उदाहरण में आकारान्त शब्द हाहा में तृतीया विभक्ति से संबंधित 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर भी अकारान्त शब्द 'वच्छ' +ण-वच्छेण' के समान शब्दान्त्य स्वर 'ओ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति नहीं हुई है। मालाः पश्य-मालाओ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org