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88 : प्राकृत व्याकरण ३-६१ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप में डेसिं-एसिं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप अवरेसिं सिद्ध हो जाता है। ___ द्वितीय रूप-(अपरेषाम्=) अवराण में अवर' अंग की-प्राप्ति उपर्युक्त विधि के अनुसार तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२
और ३-६ से उपर्युक्त 'अन्नाण' के समान ही साधनिका की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप अवराण भी सिद्ध हो जाता है। _एषाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त पुल्लिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप इमेसिं और इमाण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-७२ से मूल संस्कृत शब्द इदम् के स्थान पर प्राकृत में 'इम' रूप की प्राप्ति और ३-६१ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डेसिं-एसिं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप इमेसिं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (एषाम् ) इमाण में 'इम' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि के अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'इम' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'आगे षष्ठी-बहुवचन-प्रत्यय का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति और ३-६ से प्राप्तांग ‘इमा' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण'प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप इमाण भी सिद्ध हो जाता है।
एतेषाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त पुल्लिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप एएसिं और एआण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'एतद्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-६१ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'डेसिं' प्रत्यय की प्राप्ति; तत्पश्चात् 'डेसिं' में स्थित 'ड्' इत्संज्ञक होने से 'एअ' में स्थित अन्त्य 'अ' स्वर की इत्संज्ञा होकर इस 'अ' स्वर का लोप; तत्पश्चात् शेष अंग 'ए' में उपर्युक्त 'एसिं प्रत्यय की संयोजना होकर एएसिं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (एतेषाम) एआण में 'एअ' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१२ से प्राप्तांग 'एअ में स्थित अन्त्य 'अ' के 'आगे षष्ठी बहुवचन प्रत्यय का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति; ३-६ से प्राप्तांग 'एआ' (में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन) में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप एआण भी सिद्ध हो जाता है। __ येषाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त पुल्लिग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप जेसिं और जाण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सत्र-संख्या १-२४५ से मल संस्कत शब्द 'यद' में स्थित 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्तिः१-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'द्' का लोप; ३-६१ से प्राप्तांग 'ज' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'डेसिं' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डेसिं' में स्थित 'ड्' इत्संज्ञक होने से 'ज' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' की इत्संज्ञा होकर इस 'अ' का लोप एवं हलन्त 'ज्' में उपर्युक्त 'एसिं' प्रत्यय की संयोजना होकर प्राप्त प्रथम रूप जेसिं सिद्ध हो जाता है।
जाण की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-३३ में की गई है।
तेषाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त पुल्लिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप तेसिं और ताण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'तद्' में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'द्' का लोप और ३-६१ से प्राप्तांग 'त' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'डेसिं' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डेसि' में स्थित 'ड्' इत्संज्ञक होने से 'त' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' की इत्संज्ञा होकर इस 'अ' का लोप एवं हलन्त 'त्' में उपर्युक्त 'एसिं' प्रत्यय की संयोजना होकर प्रथम रूप तेसिं सिद्ध हो जाता है।
ताण की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-३३ में की गई है।
केषाम संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त पुल्लिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप केसिं और काण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-७१ से मूल संस्कृत शब्द 'किम्' के स्थान पर प्राकृत में 'क' अंग की प्राप्ति और ३-६१
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