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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 151 नये संस्कृत चतुर्थी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप मुणिस्स होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-२२८ से मूल संस्कृत शब्द मुनि में स्थित 'न्' व्यंजन के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३ - १३१ से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति की आदेश प्राप्ति; ३ - १० से प्राकृत में प्राप्त रूप मुणि में चतुर्थी विभक्ति के स्थानीय षष्ठी विभक्तिबोधक प्रत्यय 'स्स' की प्राप्ति होकर मुणिस्स रूप सिद्ध हो जाता है।
मुनिभ्यः संस्कृत चतुर्थी विभक्ति का बहुवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप मुणीण होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - २२८ से मुनि में स्थित 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३ - १३१ से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति की आदेश प्राप्ति; ३ - १२ से प्राप्त प्राकृत रूप मुणि में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' के स्थान पर आगे चतुर्थी विभक्ति के स्थानीय षष्ठी विभक्ति- बोधक बहुवचनात्मक प्रत्यय का सद्भाव होने से दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति; तत्पश्चात् ३-६ से प्राप्त प्राकृत रूप मुणी में चतुर्थी विभक्ति के स्थानीय षष्ठी विभक्तिबोधक बहुवचनात्मक संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मुणीण रूप सिद्ध हो जाता है।
'देइ' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या २ - २०६ में की गई है।
'नमो' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-४६ में की गई है।
देवाय संस्कृत चतुर्थी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप देवस्स होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३-१३१ से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति के प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति;३ - १० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर देवस्स रूप सिद्ध हो जाता है।
देवेभ्यः संस्कृत चतुर्थी विभक्ति का बहुवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप देवाण होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३-१३१ से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति के प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; ३ - १२ से देव शब्द में स्थि अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के स्थान पर चतुर्थी विभक्ति के स्थानीय षष्ठी विभक्ति-बोधक बहुवचनात्मक प्रत्यय का सद्भाव होने से दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति; तत्पश्चात् ३ - ६ से प्राप्त प्राकृत रूप देवा में चतुर्थी विभक्ति के स्थानीय षष्ठी विभक्तिबोधक बहुवचनात्मक संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर देवाण रूप सिद्ध हो जाता है । । ३ -१३१।।
तादर्थ्य डे र्वा । । ३ -१३२।।
तादर्थ्यविहितस्य डेश्चतुर्थ्येकवचनस्य स्याने षष्ठी वा भवति ।। देवस्स । देवाय। देवार्थमित्यर्थः।। ङेरिति किम देवा ।।
अर्थः-तादर्थ्य अर्थात् उसके लिये अथवा उपकार्य-उपकारक अर्थ में प्रयुक्त की जाने वाली चतुर्थी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'डे-ए' के स्थानीय संस्कृत रूप 'आय' की प्राप्ति प्राकृत शब्दों में वैकल्पिक रूप से हुआ करती है। तदनुसार प्राकृत-शब्दों में चतुर्थी विभक्ति एकवचन में भी षष्ठी विभक्ति के एकवचन की प्राप्ति होती है तो कभी संस्कृत चतुर्थी विभक्ति के समान ही 'आय' प्रत्यय की प्राप्ति भी हुआ करती है। परन्तु मुख्यतः और अधिकांशतः प्राकृत-शब्दों में चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय की ही प्राप्ति होती है। उदाहरणार्थ:देवार्थम्=देवाय अथवा देवस्स अर्थात् देवता के लिये ।
प्रश्न:- मूल सूत्र में चतुर्थी विभक्ति के एकवचन में प्रत्यय 'ङ' का उल्लेख क्यों किया गया है?
उत्तर- क्योंकि चतुर्थी विभक्ति में दो वचन होते हैं। एकवचन और बहुवचन; तदनुसार प्राकृत शब्दों में केवल चतुर्थी विभक्ति के एकवचन में ही वैकल्पिक रूप से संस्कृत प्रत्यय 'आय' की प्राप्ति होती है; न कि संस्कृत बहुवचनात्मक प्राप्त प्रत्यय 'भ्यस्' की; बहुवचन में तो षष्ठी विभक्ति में प्राप्त प्राकृत प्रत्यय की ही प्राप्ति होती है। इस अन्तर को प्रदर्शित करने के लिये ही 'डे' प्रत्यय की सूचना मूल सूत्र में प्रदान की गई है। उदाहरण इस प्रकार है; देवेभ्यः = देवाण अर्थात् देवताओं के लिये। यहां पर 'देवाण' में 'ण' प्रत्यय षष्ठी बहुवचन का है; जो कि चतुर्थी विभक्ति के बहुवचन
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