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152 : प्राकृत व्याकरण अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। यों यह विधान निर्धारित किया गया है कि प्राकृत में चतुर्थी विभक्ति के बहुवचन के अर्थ में और षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में समान रूप से ही प्राकृत प्रत्यय की प्राप्ति हुआ करती है। अन्तर है तो केवल एकवचन में ही है और वह भी वैकल्पिक रूप से है। नित्य रूप से नहीं।
देवार्थम् संस्कृत तादर्थ्य सूचक चतुर्थी विभक्ति का एकवचनान्त रूप है। इसके प्राकृत रूप देवस्स और देवाय होते हे इनमें से प्रथम रूप देवस्स की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१३१ में की गई है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या ३-१३२ में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी संस्कृत प्रत्यय 'डे=ए आय' की प्राप्ति होकर देवाय रूप सिद्ध हो जाता है। 'देवाण' रूप की सिद्ध सूत्र-संख्या ३-१३१ में की गई है।।३-१३२।।
वधाड्डाइश्च वा।। ३-१३३।। वध शब्दात् परस्य तादर्थ्यडे र्डिद् आइः षष्ठी च वा भवति।। वहाइ वहस्स वहाय। वधार्थमित्यर्थः।।
अर्थः- संस्कृत में 'वध' एक शब्द है; जिसका प्राकृत रूप 'वह' होता है। इस 'वह' शब्द के लिये चतुर्थी के एकवचन में 'तादर्थ्य = उसके लिये इस अर्थ में संस्कृत प्राप्त आय की प्राप्ति के अतिरिक्त षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्राकृत प्रत्यय 'स्स' के साथ-साथ एक और प्रत्यय 'आइ' की प्राप्ति भी वैकल्पिक रूप से हुआ करती है। यों वधार्थम्' के तीन रूप प्राकृत भाषा में बन जाया करते हैं; जो इस प्रकार हैं:- वधार्थम् वहाइ, वहस्स, वहाय अर्थात् वध के लिये; मारने के लिये। यह ध्यान में रहे कि इन रूपों की यह स्थित वैकल्पिक है; जैसा कि सूत्र में और वृत्ति में 'वा' अव्यय का उल्लेख करके सूचित किया जाता है। __वधार्थम संस्कृत तादर्थ्य सूचक चतुर्थी विभक्ति का एकवचनान्त रूप है। इसके प्राकृत रूप वहाइ, वहस्स और वहाय होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१८७ से मूल संस्कृत शब्द 'वध' में स्थित 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्तिः ३-१३३ से चतुर्थी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'डे' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'आइ' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति; १-१० से प्राकृत शब्द 'वह' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के आगे 'आइ' प्रत्यय का 'आ' रहने से लोप; तत्पश्चात् १-५ से प्राप्त रूप 'वह आइ' में संधि होकर प्रथम रूप वहाइ सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'वहस्स' में सूत्र-संख्या ३-१३१ से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति के प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति तदनुसार ३-१० से संस्कृत प्रत्यय "ङस् अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप वहस्स की सिद्धि हो जाती है। __तृतीय रूप वहाय में सूत्र-संख्या ३-१३२ से चतुर्थी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'डे-ए-आय' की प्राकृत में वैकल्पिक रूप से प्राप्ति; तत्पश्चात् १-५ से संधि होकर तृतीय रूप वहाय सिद्ध हो जाता है।।३–१३३।।
क्वचिद् द्वितीयादेः।।३-१३४।। द्वितीयादीनां विभक्तीनां स्थाने षष्ठी भवति क्वचित्।। सीमा-धरस्स वन्दे। तिस्सा मुहस्स भरिमो। अत्र द्वितीयायाः षष्ठी।। धणस्स लद्धो। धनेन लब्ध इत्यर्थः। चिरस्स मुक्का। चिरेण मुक्तत्यर्थः तेसिमेअमणाइण्णं। तैरेतदनाचरितम्। अत्र तृतीयायाः।। चोरस्स बीहइ। चोराद्विभेतीत्यर्थः। इअराइं जाण लहु अक्खाराइं पायन्ति मिल्ल सहिआण। पादान्तेन सहितेभ्य इतराणीति। अत्र पञ्चम्याः।। पिट्ठीएँ केस-भारो। अत्र सप्तम्याः।। __अर्थः- प्राकृत भाषा में कभी-कभी अनियमित रूप से उपर्युक्त विभक्तियों के स्थान पर किसी अन्य विभक्ति का प्रयोग भी हो जाया करता है। तद्नुसार द्वितीया तृतीया, पंचमी और सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग होता हुआ देखा जाता है। ऐसी स्थिति कभी-कभी और कहीं-कहीं पर ही होती है नित्य और सर्वत्र ऐसा नहीं होता है। द्वितीया के स्थान पर षष्ठी के प्रयोग के उदाहरण यों है :- सीमाधरं वन्दे-सीमाधरस्स वन्दे=मैं सीमाधर को वंदना करता हूं; तस्याः मुखम् स्मरामः तिस्सा मुहस्स भरिमो-हम उसके मुख को स्मरण करते हैं। तृतीया के स्थान पर षष्ठी के प्रयोग
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