SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 286
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 253 ततनेस्तड-तड्ड-तड्डव-विरल्ला ।। ४-१३७।। तनेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति। तडइ। तड्डइ। तड्डवइ। विरल्लइ। तणइ।। अर्थः- 'विस्तार करना, फैलाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'तन' के स्थान पर प्राकृत भाषा में चार धातु-रूपों की आदेश-प्राप्ति विकल्प से होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:-(१) तड, (२) तड, (३) तड्डव और (४) विरल्ल। वैकल्पिक पक्ष होने से 'तण' भी होगा। उदाहरण क्रम से यों हैं:- तनोति= (१) तडइ, (२) तड्डइ, (३) तड्डवइ, (४) विरल्लइ। पक्षान्तर में तणइ-वह विस्तार करता है अथवा वह फैलाती है।। ४-१३७|| तृपस्थिप्पः ।। ४–१३८|| तृप्यते स्थिप्प इत्यादेशो भवति।। थिप्पइ।। __ अर्थः- 'तृप्त होना, संतुष्ट होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'तृप्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'थिप्प' (अथवा थिंप) आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- तृप्यति-थिप्पइ (अथवा थिंपइ)= वह तृप्त होती है, वह सन्तुष्ट होता है।।४-१३८।। उपसरल्लिअः ।। ४-१३९।। उपपूर्वस्य सृपेः कृतगुणस्य अलिअ इत्यादेशो वा भवति।। अलिअइ । उवसप्पइ।। अर्थः-संस्कृत धातु 'सृप्' में स्थित ऋक 'र' स्वर को गुणा करके प्राप्त धातु रूप 'सर्प' के पूर्व में 'उप' उपसर्ग को संयोजित करने पर उपलब्ध धातु रूप 'उपसर्प' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'अल्लिअ' की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'उवसप्प' भी होगा। जैसे:-उपसर्पति अल्लिअइ अथवा उवसप्पइ-वह पास में, समीप में जाता है।।४-१३९।। । संतपेझैङ्ख।। ४-१४०॥ संतपे झंड इत्यादेशो वा भवति।। झंखइ। पक्षे। संतप्तइ।। अर्थः-'संतप्त होना, संताप करना' अर्थक संस्कृत धातु 'सं+तप्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'झंख' की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'संतप्प' भी होगा। जैसे:- संतपति-झङ्खइ अथवा संतप्पइ वह संतप्त होता है अथवा वह संताप करती है।।४-१४०।। व्यापेरोअग्गः।। ४-१४१॥ व्याप्नोतेरोअग्ग इत्यादेशौ वा भवति।। ओअग्गइ। वावेइ।। अर्थः- 'व्याप्त करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'वि+आप' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'ओअग्ग' की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने वाव' भी होगा। जैसे:- व्याप्नोति-ओअग्गइ अथवा वावेइ वह व्याप्त करता है।।४-१४१।। समापेः समाणः।।४-१४२।। समाप्नोतेः समाण इत्यादेशो वा भवति।। समाणइ। समावे॥ अर्थः- 'समाप्त करना, पूरा करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'सम्+आप' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'समाण की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'समाव' भी होता है। जैसेः- समाप्नोति-समाणइ अथवा समावेइ = वह समाप्त करता है अथवा वह पूरा करती है।।४-१४२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy