________________
252 : प्राकृत व्याकरण होती है। वे यों हैं:- (१) झड और (२) पक्खोड। उदाहरण इस प्रकार हैं:- शीयते-झडइ और पक्खोडइ-वह झड़ता है, वह टपकती है, वह धीरे-धीरे कम होती है ।। ४-१३०।।
आक्रन्देीहरः॥४-१३१।। आक्रन्देीहर इत्यादेशो वा भवति।। णीहरइ। अक्कन्दइ।।
अर्थः- आक्रन्दन करना, चिल्लाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'आ+क्रन्द्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'णीहर' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से अक्कन्द भी होगा। जैसे:- आक्रन्दति=णीहरइ अथवा अक्कन्दइ-वह आक्रंदन करती है अथवा वह चिल्लाता है ।।४-१३१।।
खिदेर्जूर-विसूरौ ।।४-१३२।। खिदेरेतावादेशो वा भवतः। जूरइ। विसूरइ। खिज्जइ।।
अर्थः- खेद करना, अफसोस करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'खिद्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'जूर और विसूर' ऐसे दो धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष में 'खिज्ज' की भी प्राप्ति होगी। उदाहरण यों है:- खिद्यते=(१) जूरइ, (२) विसूरइ और पक्ष में खिज्जइ-वह खेद करता है, वह अफसोस करती है ।। ४-१३२।।
रुधेरुत्थङ्घः ॥ ४-१३३।। रुधेरुत्थङ्घ इत्यादेशो वा भवति।। उत्थष्ठइ। रुन्घइ।।
अर्थः- 'रोकना' अर्थक संस्कृत-धातु 'रुध्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'उत्थंघ' धातु -रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'रुन्ध' की भी प्राप्ति होगी। जैसे:- रुणद्धि-उत्थंघइ अथवा रुन्धइ वह रोकता है ।। ४-१३३।।
निषेधेर्हक्कः॥ ४-१३४॥ निषेधतेर्हक्क इत्यादेशो वा भवति।। हक्कइ। निसेहइ।।
अर्थ :- ‘निषेध करना, निवारण करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'नि+षिध्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'हक्क' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'निसेह' भी होगा। जैसे:- निषेधति-हक्कइ अथवा निसेहइ-वह निषेध करती है अथवा निवारण करता है।।४–१३४।।
क्रुधेर्जूरः।।४-१३५।। क्रुधेर्जूर इत्यादेशो वा भवति।। जूरइ । कुज्झइ।
अर्थः- 'क्रोध करना, गुस्सा करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'क्रुध' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'जूर' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से कुज्झ' भी होगा। जैसे:- क्रुध्यति-जूरइ अथवा कुज्झइ-वह क्रोध करता है, वह गुस्सा करता है।।४-१३५।।
जनो जा-जम्मौ।।४-१३६॥ जायते ॥य जम्म इत्यादशौ भवतः ।। जाअइ। जम्मइ।। ___ अर्थः-'उत्पन्न होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'जन' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'जा' और 'जम्म' की आदेश-प्राप्ति होती है। जैसे:-जायते-जाअइ और जम्मइ वह उत्पन्न होता है।। ४-१३६।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org