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________________ 254 : प्राकृत व्याकरण क्षिपे गलत्थाड्डक्ख-सोल्ल-पेल्ल-णोल्ल-छुह-हुल-परी-घत्ताः।। ।।४-१४३।। क्षिपेरेते नवादेशा वा भवन्ति।। गलत्थइ। अड्डक्खइ। सोल्लइ। पेल्लई। णोल्लइ। हसत्वे तु णुलइ। छुहइ। हुलइ। परीइ। घत्तइ। खिवइ। ___ अर्थः-' फेंकना, डालना' अर्थक संस्कृत धातु 'क्षिप्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से नव धातु रूपों की आदेश प्राप्ति होती है, जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) गलत्थ, (२) अड्डक्ख, (३) सोल्ल, (४) पेल्ल, (५) णोल्ल, (६) छुह, (७) हुल (८) परी और (९) घत्त। वैकल्पिक पक्ष होने से 'खिव' भी होगा। उपर्युक्त धातुओं में से पांचवी धातु 'णोल्ल' में स्थित 'ओकार' स्वर को विकल्प से हस्वत्व की प्राप्ति होने पर वैकल्पिक रूप से 'णोल्ल' के स्थान ‘णुल्ल' रूप की प्राप्ति हुआ करती है। संस्कृत-धातु 'क्षिप' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में उक्त ग्यारह प्रकार के धातु-रूप उपलब्ध होते हैं। इनके उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- क्षिपति=(१) गलत्थइ, (२) अड्डक्खइ (३) सोल्लइ, (४) पेल्लइ, (५) णोल्लइ, (६) णुलइ, (७) छुहइ (८) हुलइ (९) परीइ, (१०) घत्तइ (११) और खिवइ-वह फेंकती है अथवा वह डालता है।। ४-१४३।। उत्क्षिपेर्गुलगुञ्छोत्थंघाल्लत्थोब्भुत्तोस्सिक्क-हक्खुवाः ।। ४-१४४॥ उत्पूर्वस्य क्षिपेरेते षडादेशा वा भवन्ति। गुलगुञ्छइ। उत्थंघइ। अल्लत्थइ। उब्भुत्तइ। उस्सिक्कइ। हक्खुवइ। उक्खिवइ॥ __ अर्थः- 'उत्' उपसर्ग सहित संस्कृत धातु 'क्षिप्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से छह धातु रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो इस प्रकार हैं:- (१) गुलगञ्छ, (२) उत्थंघ, (३) अल्लत्थ, (४) उब्भुत्त, (५) उस्सिक और (६) हक्खुव। वैकल्पिक पक्ष होने से उक्खिव भी होगा। उदाहरण इस प्रकार हैं:- उत्क्षिपति=(१) गुलगुञ्छइ, (२) उत्थंघइ, (३) अल्लत्थइ, (४) उब्भुत्तइ, (५) उस्सिक्कइ, (६) हक्खुवइ। पक्षान्तर में उक्खिवइ= वह ऊँचा फेंकता है।।४-१४४।। आक्षिपर्णीरवः ॥४-१४५॥ आङ् पूर्वस्य क्षिपेरिव इत्यादेशो वा भवति ॥ णीरवइ। अक्खिवइ। अर्थः- 'आ' उपसर्ग सहित संस्कृत-धातु 'क्षिप्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से ‘णीरव' की आदेश प्राप्ति होती है। वेकल्पिक पक्ष होने से 'अक्खिव' भी होगा। जैसे:- आक्षिपति-णीरवइ अथवा अक्खिवइ-वह आक्षेप करती है, वह टीका करता है अथवा वह दोषारोपण करती है ।। ४-१४५।। स्वपेः कमवस-लिस-लोद्राः ।। ४-१४६।। स्वपेरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति ।। कमवसइ। लिसइ। लोइ। सुअइ।। अर्थः- 'सोना अथवा सौ जाना, शयन करना' अर्थक संस्कृत धातु 'स्वप्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से तीन (धातु) रूपों की आदेश प्राप्ति होती है (१) कमवस, (२) लिस और (३) लोट्ट। वैकल्पिक पक्ष होने से 'सुप' भी होगा। उदाहरण यों है:- स्वपिति= (१) कमवसइ, (२) लिसइ, (३) लोट्टइ अथवा सुअइवह सोता है, वह शयन करती है।। ४-१४६।। वेपेरायम्बायज्झौ ।। ४-१४७॥ वेपेरायम्ब आयज्झ इत्यादशो वा भवतः ।। आयम्बइ। आयज्झइ। वेवइ।। अर्थः- 'कांपना अथवा हिलना' अर्थक संस्कृत-धातु 'वे' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'आयम्ब और आयज्झ' ऐसे दो धातु रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक-पक्ष होने से 'वेव' भी होगा। उदाहरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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