SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 159 विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; तदनुसार ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचने में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा=आ' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-१४ से तृतीया विभक्ति प्राप्त प्रत्यय 'ण' के कारण से पूर्वोक्त प्राप्त प्राकृत शब्द 'त' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' पर 'ए' स्वर की प्राप्ति और १-२७ से प्राप्त प्राकृत रूप तेण' में स्थित अन्त्य वर्ण 'ण' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर तेणं रूप सिद्ध हो जाता है। ___काले संस्कृत का सप्तमी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप कालेणं है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१३७ की वृत्ति से सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; तदनुसार ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा-आ' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-१४ से तृतीया विभक्ति का प्रत्यय 'ण' प्राप्त होने से मूल प्राकृत शब्द 'काल' में स्थित अन्त्य वर्ण 'ल' के अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और १-२७ से प्राप्त प्राकृत रूप कालेण में स्थित अन्त्य वर्ण 'ण' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर कालेणं रूप सिद्ध हो जाता है। 'तेणं' सर्वनाम रूप की सिद्धि ऊपर इसी सूत्र में की गई है। समये संस्कृत का सप्तमी विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप समएणं है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'समय' में स्थित 'य' व्यंजन का लोप; ३-१३७ की वृत्ति से सप्तमी विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में तृतीया विभक्ति का प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; तदनुसार ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा=आ' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-१४ से तृतीया विभक्ति का प्रत्यय 'ण' प्राप्त होने से मूल प्राकृत शब्द 'समअ' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और १-२७ से प्राप्त प्राकृत रूप समएण में स्थित अन्त्य वर्ण 'ण' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर समएणं रूप सिद्ध हो जाता है। चतुर्विंशतिः संस्कृत का प्रथमान्त संख्यात्मक विशेषण का रूप है इसका प्राकृत रूप चउवीसं है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से प्रथम 'त्' व्यंजन का लोप; २-७९ से रेफ रूप 'र' व्यंजन का लोप; १-९२ से 'वि' वर्ण में स्थित हस्व 'इ' के स्थान पर इसी सूत्रानुसार अन्तिम वर्ण 'ति' का लोप करते हुए दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति; १-२८ से 'विं' पर स्थित अनुस्वार का लोप; १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ३-१३७ की वृत्ति से प्रथमा-विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; तदनुसार ३-५ से द्वितीया-विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'अम्' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर प्राप्त प्राकृत शब्द 'चउवीस' में स्थित अन्त्य वर्ण 'स' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप चउवीसं सिद्ध हो जाता है। "पि' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४१ में की गई है। जिनवराः संस्कृत का प्रथमा विभक्ति का बहुवचनान्त पुल्लिग का रूप है। इसका प्राकृत रूप जिणवरा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-१२ से प्राप्त प्राकृत शब्द-'जिणवर में स्थिर अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर प्रथमा विभक्ति का बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति और ३-४ से प्राप्त प्राकृत शब्द जिणवरा में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्' का प्राकृत में लोप होकर प्रथमा-बहुवचनान्त प्राकृत पद जिणवरा सिद्ध हो जाता है। ३-१३७|| क्यङोर्य लुक् ।।३-१३८।। क्यउन्तस्य क्यङ् षन्तस्य वा संबन्धिनो यस्य लुग् भवति।। गरूआइ। गरूआअइ। अगुरु गुरु भवति गुरुरिवाचरिति वेत्यर्थः। क्यझ्। दमदमाइ। दमदमाअइ।। लोहिआइ। लाहिआअइ। अर्थः- संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं में संज्ञाओं पर से धातुओं अर्थात् क्रियाओं के बनाने का विधान पाया जाता है; तदनुसार वे नाम-धातु कहलाते हैं और इसी रीति से प्राप्त धातुओं में अन्य सर्व सामान्य धातुओं के समान ही कालवाचक एवं पुरुष-बोधक प्रत्ययों की संयोजना की जाती है। जब संस्कृत संज्ञाओं में क्यङ्' और 'क्यङ् ष'='य' और 'इ' प्रत्ययों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy