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158 : प्राकृत व्याकरण
सप्तम्या द्वितीया ।३-१३७।। सप्तम्याःस्थाने क्वचिद् द्वितीया भवति।। विज्जुज्जोयं भरइ रत्ति।। आर्षे तृतीयापि दृश्यते। तेणं कालेणं। तेणं समएण। तस्मिन् काले तस्मिन् समये इत्यर्थः। प्रथमाया अपि द्वितीया दृश्यते चउवीसं पि जिणवरा। चतुर्विशतिरपि जिनवरा इत्यर्थः।। ___ अर्थः- संस्कृत भाषा में प्रयुक्त सप्तमी विभक्ति के स्थान पर कभी-कभी प्राकृत भाषा में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग भी हुआ करता है। उदाहरण इस प्रकार है:- विद्युज्ज्योतम् स्मरति रात्रो-वह रात्रि में विद्युत् प्रकाश को याद करता है; इस उदाहरण में सप्तम्यन्त पद 'रात्रौ' का प्राकृत रूपान्तर द्वितीयान्त पद ‘रति' के रूप में किया गया है। यों सप्तमी के स्थान पर द्वितीया का प्रयोग प्रदर्शित किया गया है। आर्ष प्राकृत में सप्तमी के स्थान पर तृतीया का प्रयोग भी देखा जाता है। इस विषयक दृष्टान्त इस प्रकार है:- तस्मिन् काले तस्मिन् समये-तेणं कालेणं तेणं समएणं-उस काल में (काल) उस समय में; यहां पर स्पष्ट रूप से सप्तमी के स्थान पर तृतीया का प्रयोग हुआ है। कभी-कभी आर्ष प्राकृत के प्रयोगों में प्रथमा के स्थान पर द्वितीया का सद्भाव भी पाया जाता है। उदाहरण इस प्रकार है:- चतुर्विंशतिरपि जिनवरः चउवीसपि जिणवरा-चौबीस तीर्थङ्कर भी। यहां पर चतुर्विंशतिः प्रथमान्त पद है; जिसका प्राकृत रूपान्तर द्वितीयान्त में करके 'चउवीसं' प्रदान किया गया है। यों प्राकृत भाषा में विभक्तियों की अनियमितता पाई जाती है। इससे पता चलता है कि आर्ष प्राकृत का प्रभाव उत्तरवर्ती प्राकृत भाषा पर अवश्यमेव पड़ा है; जो कि प्राचीनता का सूचक है। ..
विद्युज्ज्योतम् संस्कृत का द्वितीया विभक्ति का एकवचनान्त नपुंसकलिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप विज्जुज्जोयं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-२४ से संयुक्त व्यंजन 'छ्' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति; २-८९ से आदेश-प्राप्त व्यंजन 'ज्' को द्वित्व 'ज्ज्' की प्राप्ति; २-७७ से प्रथम हलन्त व्यंजन 'त्' का लोप; २-७८ से द्वितीया 'य' व्यंजन का लोप २-८९ से लोप हुए 'य' के पश्चात् शेष रहे हुए व्यंजन 'ज्' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'त्' व्यंजन का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' व्यंजन के पश्चात् शेष रहे हुए 'ट' स्वर के स्थान पर 'य' वर्ण की प्राप्ति; ३-५ से प्राप्त प्राकृत शब्द 'विज्जुज्जोय' में द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'अम्' के स्थान पर प्राकृत में 'म् प्रत्यय की प्राप्ति
और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्वस्थ व्यंजन 'य' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत-पद विज्जुज्जोयं सिद्ध हो जाता है।
स्मरति संस्कृत का वर्तमानकालीन प्रथमपुरुष का एकवचनान्त क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप भरइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-७४ से मूल संस्कृत-धातु 'स्मृ-स्मर' के स्थान पर प्राकृत में 'भर् रूप की आदेश प्राप्ति; ४-२३९ से प्राप्त हलन्त धातु 'भर्' में विकरण-प्रत्यय 'अ की प्राप्ति और ३-१३९ से प्राप्त प्राकृत धातु 'भर्' में वर्तमानकालीन प्रथमपुरुष के एकवचनार्थ में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रूप 'भरइ' सिद्ध हो जाता है।
रात्रा संस्कृत की सप्तमी विभक्ति एकवचनान्त स्त्रीलिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप रत्तिं है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से मूल संस्कृत शब्द 'रात्रि' में स्थित द्वितीय '' व्यंजन का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' व्यंजन के पश्चात् शेष रहे हुए 'त्' को द्वित्व 'त्त्' की प्राप्ति; १-८४ से आदि वर्ण 'रा' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर आगे संयुक्त व्यंज्जन 'त्ति' का सद्भाव होने से हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; ३-१३७ से सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; तदनुसार ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'अम्' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर शब्दस्थ पूर्व वर्ण 'त्ति' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर रत्तिं रूप सिद्ध हो जाता है।
तस्मिन् संस्कृत का सप्तमी विभक्ति एकवचनान्त सर्वनाम पुल्लिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप तेणं है। इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से मूल संस्कृत शब्द 'तद्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यंजन 'द्' का लोप; ३-१३७ का वृत्ति से सप्तमी
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