________________
48 : प्राकृत व्याकरण
अर्थ :- प्राकृत भाषा के अकारान्त पुल्लिंग शब्दों में संबोधन अवस्था में प्रथमा विभक्ति एकवचन में सूत्र - संख्या ३- २ के अनुसार प्राप्त प्रत्यय "सि" के स्थान पर आने वाले ओ प्रत्यय की प्राप्ति कभी होती है और कभी-कभी नहीं भी होती है जैसे- हे देव! = हे देव अथवा हे देवो!; हे क्षमा श्रमण ! - हे खमा-समण ! अथवा हे खमा-समणो! हे आर्य! =हे अज्ज! अथवा हे अज्जो ।
इसी प्रकार से प्राकृत भाषा के इकारान्त तथा उकारान्त पुल्लिंग शब्दों में संबोधन अवस्था में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में सूत्र- संख्या ३ - १९ के अनुसार प्राप्त प्रत्यय "सि" के स्थान पर प्राप्त होने वाले " अन्त्य ह्रस्व स्वर को " दीर्घत्व" की प्राप्ति कभी होती है और कभी नहीं भी होती है। जैसे- हे हरे ! = हे हरी ! अथवा हे हरि ! ; हे गुरो ! = हे गुरु ! अथवा हे गुरु! ; जाति-- विशुद्धेन हे प्रभो ! = जाइ विसुद्वेण हे पहू! इसी प्रकार से दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:- हे द्वौजितलोक ! प्रभो! = हे दोण्णिजिअ - लोए पहू! अर्थात् हे दोनों लोकों को जीतने वाले ईश्वर! अथवा वैकल्पिक पक्ष में हे प्रभो ! का पहु भी होता है। इस प्रकार से इकारान्त और उकारान्त पुल्लिंग शब्दों में संबोधन - अवस्था के एकवचन में अन्त्य स्वर को दीर्घत्व की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से हुआ करती है।
अकारान्त पुल्लिंग शब्दों में भी संबोधन अवस्थों के एकवचन में प्रथमा विभक्ति के एकवचन के अनुसार प्राप्त प्रत्यय 'ओ' के अभाव होने पर अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से हुआ करती है। जैसे :- हे गौतम! हे गोअमा! अथवा हे गोअम! हे कश्यप ! = हे कासवा ! अथवा हे कासव ! इत्यादि । इस प्रकार उपर्युक्त विधि-विधानुसार संबोधन अवस्था के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग शब्दों के तीन रूप हो जाते हैं; जो कि इस प्रकार हैं:- (१) 'ओ' प्रत्यय होने पर; (२) वैकल्पिक रूप से 'ओ' प्रत्यय का अभाव होने पर मूल रूप की यथावत् स्थिति और (३) अन्त्य 'आ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से दीर्घत्व की प्राप्ति होकर 'आ' की उपस्थिति । जैसे:- हे देव! हे देवा! हे देवो! हे खमा समण! हे खमासमणा! हे खमासमणो! हे गोअम! हे गोअमा! हे गोअमो ! इत्यादि । विशेष रूप अकारान्त पुल्लिंग शब्दों में भी संबोधन - अवस्था के एकवचन में "ओ" प्रत्यय के अभाव होने पर अन्त्य "अ" को वैकल्पिक रूप से "आ" की प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:- रे! रे ! निष्फलक ! - रे! रे ! चप्फलया ! अर्थात् अरे ! अरे ! निष्फल प्रवृत्ति करने वाले । रे! रे ! निर्घृणक!-रे! रे! निग्घिणया! अर्थात् अरे ! अरे ! दयाहीन निष्ठुर इन उदाहरणों में संबोधन के एकवचन में अन्त्य रूप में " आत्व" की प्राप्ति हुई है। पक्षान्तर में " रे ! चप्फलया ! और रे! निग्घिणय !" भी होते हैं। यों सम्बोधन के एकवचन में होने वाली विशेषताओं को समझ लेनी चाहिये ।
हे देव! संस्कृत संबोधन एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप हे देव! और हे देवो ! होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या ३-८ से संबोधन के एकवचन में प्रथमा विभक्ति के अनुसार प्राप्त प्रत्यय 'ओ' की वैकल्पिक रूप से होकर क्रम से दोनों रूप हे देव और हे देवो सिद्ध हो जाते हैं।
क्षमा-श्रमण ! संस्कृत संबोधन एकवचन रूप है। इसके प्राकृत रूप खमा समण और हे खमा- समणो होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या २ - ३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-७९ से 'श्र' में स्थित 'र' का लोप; १ - २६० से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एकवचन में प्रथमा विभक्ति के अनुसार प्राप्त प्रत्यय 'ओ' की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप हे खमा- समण ! और हे खमा- समणो! सिद्ध हो जाते हैं।
आर्य संस्कृत संबोधन एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप हे अज्ज! और हे अज्जो ! होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २ - २४ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति;२-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एकवचन में प्रथमा विभक्ति के अनुसार प्राप्त प्रत्यय 'ओ' की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप हे अज्ज! और हे अज्जो सिद्ध हो जाते हैं।
हरे ! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप हे हरी ! और हे हरि होते हैं। इनमें सूत्र - संख्या ३-३८ से संबोधन के एकवचन में प्रथमा विभक्ति के अनुसार मूल संस्कृत रूप 'हरि' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को वैकल्पिक रूप से दीर्घ 'ई' की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप हे हरी ! और हे हरि ! सिद्ध हो जाते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org