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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 47 स्थान पर प्राकृत में 'माण' आदेश प्राप्ति; ३-३१ से तथा ३-३२ से प्राप्त प्रत्यय 'माण' में स्त्रीलिंग-अर्थक प्रत्यय 'ङी ई' की प्राप्ति; एवं प्राप्त स्त्रीलिंग-अर्थक प्रत्यय 'डी' में 'ङ' इत्संज्ञक होने से प्राप्त प्रत्यय 'माण' में अन्त्य 'अ' की इत्संज्ञा होकर लोप तथा ई प्रत्यय की हलन्त माण में संयोजना होकर हसमाणी रूप की प्राप्ति; ३-३६ से दीर्घ 'ईकार' के स्थान पर हस्व 'इकार' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर हसमाणिं रूप सिद्ध हो जाता है। __हसमानाम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन स्त्रीलिंग का विशेषण रूप है, इसका प्राकृत रूप हसमाणं होता है। इसमें हसमाण' तक की साधनिका उपर्युक्त रीति-अनुसार; ३-३१ की वृत्ति से प्राप्त रूप 'हसमाण' में स्त्रीलिंग-अर्थक प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; तदनुसार प्राप्त रूप 'हसमाणा' में ३-३६ से अन्त्य 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'हसमाणं रूप सिद्ध हो जाता है।
'पेच्छ' (क्रियापद) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है। 'माला' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-१८२ में की गई है। 'सही' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-२९ में की गई है। 'वह' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-२९ में की गई है।।३-३६।।
नामन्त्रयात्सौ मः ॥३-३७॥ आमन्त्र्यार्थात्परे सो सति क्लीबे स्वरान्म् सेः (३-२५) इति यो म् उक्तः स न भवति ।। हे तणा हे दहि। हे महु।
अर्थ :- प्रथमा विभक्ति के प्रत्ययों की प्राप्ति संबोधन अवस्था में भी हुआ करती है; तदनुसार प्राकृत भाषा के नपुंसकलिंग वाले शब्दों में संबोधन अवस्था में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय "सि" के स्थान पर सूत्र-संख्या ३-२५ के अनुसार (प्राकृत में) प्राप्त होने वाले "म्" आदेश- प्राप्त प्रत्यय का अभाव हो जाता है। अर्थात् नपुसंकलिंग वाले शब्दों में संबोधन के एकवचन में प्रथमा में प्राप्तव्य प्रत्यय "म्' का अभाव होता है। जैसे- हे तृण-हे तण। हे दधि-हे दहि और हे मधु-हे महु इत्यादि। __ हे तृण! संस्कृत संबोधन एकवचनान्त नपुंसकलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप"हे तण!" होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ से "ऋ" के स्थान पर "अ" की प्राप्ति और ३-३७ से प्रथमा के समान ही संबोधन के एकवचन में प्राप्त “सि" के स्थान पर आने वाले "म्" प्रत्यय का अभाव होकर "हे तण!" रूप सिद्ध हो जाता है। ___ हे दधि! संस्कृत संबोधन एकवचनान्त नपुंसकलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप हे दहि! होता है इसमें सूत्र-संख्या ९-१८७ से 'ध्' के स्थान पर ह की प्राप्ति और ३-३७ से प्रथमा के समान ही संबोधन एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर आने वाले म् प्रत्यय का अभाव होकर हे दहि ! रूप सिद्ध हो जाता है। __ हे मधु! संस्कृत संबोधन एकवचनान्त नपुंसकलिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप "हे मह!" होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से “ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-३७ से प्रथमा के समान ही संबोधन के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय "सि" के स्थान पर आने वाले "म्" प्रत्यय का अभाव होकर "हे महु!" रूप सिद्ध हो जाता है। ३-३७।।
डो दीर्घा वा ।। ३-३८॥ आमन्त्र्यार्थात्परे सौ सति अतः से? (३-२) इति यो नित्यं डोः प्राप्तो यश्च अक्लीबे सौ (३-१९) इति इदुतोरकारान्तस्य च प्राप्तो दीर्घः स वा भवति ।। हे देव हे देवो।। हे खमा-समण हे खमा-खमणो। हे अज्ज हे अज्जो।। दीर्घः। हे हरी हे हरि। हे गुरु हे गुरु । जाइ-विसुद्धेण पहू। हे प्रभो इत्यर्थः। एवं दोण्णि पहू जिअ-लोए। पक्षे। हे पहु। एषु प्राप्ते विकल्पः॥ इहत्व प्राप्ते हे गोअमा हे गोअम। हे कासवा हे कासवा रे रे चप्पलया! रे रे निग्घिणया।।
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