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286 : प्राकृत व्याकरण
अथ शौरसेनी-भाषा-व्याकरण-प्रारम्भ
तो दोना दौ शौरसेन्यामयुक्तस्य॥४-२६०।। शौरसेन्यां भाषायामनादावपदादौ वर्तमानस्य तकारस्य दकारो भवति, न चेदसौ वर्णान्तरेण संयुक्त भवति।। तदो पूरिद-पदिबेण मारूदिणा मन्तिदो।। एतस्मात्। एदाहि। एदाओ। अनादाविति किम्। तधा करेध जधा तस्स राइणो अणुकम्पणीआ भोमि।। अयुक्तस्येति किम्। मत्तो। अय्य उत्तो असंभाकिद, सक्कार। हला सउन्तले॥
अर्थः- अब इस सूत्र-संख्या ४-२६० से प्रारम्भ करके सूत्र-संख्या ४-२८६ तक अर्थात् सत्तावीस सूत्रों मे। शौरसेनी-भाषा में रूपान्तर करने का संविधान प्रदर्शित किया जायगा। शौरसेनी भाषा में और प्राकृत-भाषा में सामान्यतः एकरूपता है, जहाँ-जहाँ अन्तर है, उसी अन्तर को इन सत्तावीस-सूत्रों में प्रदिर्शित कर दिया जावेगा। शेष सभी संविधान तथा रूपान्तर प्राकृत- भाषा के समान ही जानना चाहिये।
शौरसेनी-भाषा एक प्रकार से प्राकृत ही है अथवा प्राकृत भाषा का अंग ही है। इन दोनों में सब प्रकार से समानता होने पर भी जो अति-अल्प अन्तर है, वह इन सत्तावीस सूत्रों में प्रदर्शित किया जा रहा है। संस्कृत-नाटकों में प्राकृत गद्यांश औरसेनी-भाषा में ही मुख्यतः लिखा गया है। प्राचीन काल में यह भाषा मुख्यतः मथुरा-प्रदेश के आस-पास में ही बोली जाती थी।
संस्कृत भाषा में रहे हुए 'तकार' व्यञ्जनाक्षर के स्थान पर शौरसेनी भाषा में 'द' व्यञ्जनाक्षर की प्राप्ति उन समय में हो जाती है जब कि- (१) 'तकार' व्यञ्जनाक्षर वाक्य के आदि में नहीं रहा हुआ हो, (२) जबकि वह 'तकार' किसी पद में आदि में भी न हो और (३) जबकि वह 'तकार' किसी अन्य हलन्त व्यञ्जनाक्षर के साथ संयुक्त रूप से-(मिले हुए रूप से-संधि-रूप से) भी नहीं रहा हुआ हो, तो उसे 'तकार' व्यञ्जनाक्षर के स्थान पर 'दकार' की प्राप्ति हो जायेगी। उदाहरण इस प्रकार है:- ततः पूरित-प्रतिज्ञा ने मारूतिना मन्त्रितः तदो पूरिद-पदिश्वेण मारूदिणा मन्तिदो-इसके पश्चात् पूर्ण की हुई प्रतिज्ञा वाले हनुमान से गुप्त मंत्रणा की गई। इस उदाहरण में 'ततः' में 'त-का 'द' किया गया है। इसी तरह से 'परित, प्रतिज्ञेन, मारूतिनामन्त्रितः' शब्दों में भी रहे हए 'तकार' व्यञ्जनाक्षर के स्थान पर 'दकार' व्यञ्जनाक्षर की प्राप्ति हो गई है। (२) एतस्मात् एदाहि और एदाओ इससे। इस उदाहरण में भी 'तकार' के स्थान पर 'दकार' की आदेश-प्राप्ति की गई है। यों अन्यत्र भी ऐसे स्थानों पर 'दकार' की स्थिति को समझ लेना चाहिये।
प्रश्नः- 'वाक्य के आदि में अर्थात् आरंभ में रहे हुए 'तकार' के स्थान पर 'दकार' की आदेश-प्राप्ति नहीं होती है। ऐसा क्यों कहा गया है ? ____ उत्तरः- चूकि शौरसेनी-भाषा में ऐसा रचना-प्रवाह पाया जाता है कि संस्कृत भाषा की रचना को शौरसेनी भाषा में रूपान्तर करते हुए वाक्य के आदि में यदि 'तकार' व्यञ्जन रहा हुआ हो तो उसके स्थान पर 'दकार' व्यञ्जन की आदेश प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:- तथा कुरूथ यथा तस्य राज्ञः अनुकम्पनीया भवामि (अथवा भवेयम्)-तधा करेध जधा तस्स राइणो अणुकम्पणीआ भोमि-आप वैसा (प्रत्यत्न) करते है। जिससे मैं उस राजा की अनुकम्पा के योग्य (दया की पात्र) होती हूं (अथवा होऊँ)। इस उदाहरण में 'तधा' शब्द में स्थित 'तकार' वाक्य के आदि में आया हुआ है और इसी कारण से इस 'तकार' के स्थान पर 'दकार' व्यञ्जनाक्षर की आदेश प्राप्ति नहीं हुई है। यों सभी स्थानों पर वाक्य के आदि में रहे हुए 'तकार' व्यञ्जनाक्षर के सम्बन्ध में इस संविधान को ध्यान में रखना चाहिये।
प्रश्नः- ‘पद अथवा शब्द' के आदि में रहे हुए 'तकार' को भी 'दकार' की प्राप्ति नहीं होती है; ऐसा भी क्यों कहा गया है?
उत्तरः- शौरसेनी-भाषा में ऐसा 'अनुबन्ध अथवा संविधान' भी पाया जाता है, जबकि पद के आदि में रहे हुए 'तकार' के स्थान पर 'दकार' की आदेश-प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:- तस्य-तस्स उसका। ततः तदो। इत्यादि। इन पदों के आदि में रहे हुए 'तकार' अक्षरों को 'दकार' अक्षर की आदेश प्राप्ति नहीं हुई है; यों अन्यत्र भी जान लेना चाहिये।
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