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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 287 प्रश्न:- 'संयुक्त रूप से रहे हुए' तकार को भी दकार की प्राप्ति नहीं होती है; ऐसा क्यों कहा गया है। उत्तर :- शौरसेनी - भाषा में उसी 'तकार' को 'दकार' की आदेश - प्राप्ति होती है, जो कि हलन्त न हो; तथा किसी अन्य व्यञ्जनाक्षर के साथ में मिला हुआ न हो; यों 'पूर्ण स्वतन्त्र अथवा अयुक्त तकार के स्थान पर ही 'दकार' की आदेश - प्राप्ति होती है। ऐसा ही संविधान शौरसेनी भाषा का समझना चाहिये। जैसे:- मत्तः = मत्तो-मद वाला अर्थात् मतवाला। आर्यपुत्रः - अय्यउत्तो पति, भर्ता, अथवा स्वामी का पुत्र । हे सखि शकुन्तले-हला सउन्तले ! = हे सखि शकुन्तले!; इत्यादि । इन उदाहरणों में अर्थात् 'मत्त, आर्य पुत्र, और शकुन्तला' शब्दों में 'तकार' संयुक्त रूप से- (मिलावट से ) - रहा हुआ है और इसीलिये इन संयुक्त 'तकारों' के स्थान पर 'दकार' व्यञ्जनाक्षर की आदेश-प्राप्ति नहीं हो सकती है। यही स्थिति सर्वत्र ज्ञातव्य है ।
वृत्ति में ' असम्भाविद-सक्कार' ऐसा उदाहरण दिया हुआ है; इसका संस्कृत रूपान्तर 'असम्भावित सत्कारं ऐसा होता है। इस उदाहरण द्वारा यह बतलाया गया है कि 'प्रथम तकार' के स्थान पर तो 'दकार' की प्राप्ति हो गई है; क्योंकि न तो वाक्य के आदि में है और न पद के ही आदि में है तथा न यह हलन्त अथवा संयुक्त ही है और इन्हीं कारणों से इस प्रथम तकार के स्थान पर 'दकार' की आदेश प्राप्ति हो गई है। जब कि द्वितीय तकार हलन्त है और इसलिये सूत्र - संख्या २- ७७ से उस हलन्त 'तकार' का लोप हो गया है। यों संयुक्त 'तकार' की अथवा हलन्त की स्थिति शौरसेनी भाषा में होती है। इस बात को प्रदर्शित करने के लिये ही यह 'असम्भाविद-सक्कारं उदाहरण वृत्ति में दिया गया है; जो कि खास तौर पर ध्यान देने के योग्य है। इस प्रकार संस्कृतीय तकार की स्थिति शौरसेनी - भाषा में 'दकार' की स्थिति में बदल जाती है; यही इस सूत्र का तात्पर्य है । । ४ - २६० ।।
अधः क्वचित्।।४-६१।।
वर्णान्तरस्याधो वर्तमानस्य तस्य शौरसेन्यां दो भवति । क्वचिल्लक्ष्यानुसारेण । । महन्दो । निच्चिन्दो । अन्देउर ||
अर्थः- यह सूत्र उपर वाले सूत्र - संख्या ४- २६० का अपवाद रूप सूत्र है, क्योंकि उस सूत्र में यह बतलाया गया है, कि संयुक्त रूप से रहे हुए 'तकार' के स्थान पर 'दकार' की प्राप्ति नहीं होती है, किन्तु इस सूत्र में यह कहा जा रहा है कि कहीं-कहीं पर ऐसा भी देखा जाता है जबकि संयुक्त रूप से रहे हुए 'तकार' के स्थान पर भी 'दकार' की प्राप्ति हो जाती है, परन्तु इसमें एक शर्त है वह यह है कि संयुक्त तकार हलन्त व्यञ्जन के पश्चात् रहा हुआ हो । यहाँ पर 'पश्चात् स्थिति का अवबोधक शब्द 'अधस् लिखा गया है। वृत्ति का संक्षिप्त स्पष्टीकरण यों है कि- 'किसी हलन्त व्यञ्जन के पश्चात् अर्थात् अधस् - रूप से रहे हुए तकार के स्थान पर शौरसेनी भाषा में 'दकार' की आदेश- प्राप्ति हो जाया करती है। 'यह स्थिति कभी-कभी और कहीं-कहीं पर ही देखी जाती है इसी तात्पर्य को वृत्ति में 'लक्ष्यानुसारेण' पद से समझाया गया है उदाहरण इस प्रकार है ( १ ) महान्तः = महन्दी - सबसे बड़ा परम जयेष्ठ। (२) निश्चिन्तः=निच्चिन्दो - निश्चिन्त । (३) अन्तः पुरं - अन्दे उरं रानियों का निवास स्थान। इन तीनों उदाहरणों में 'न्त' अवयव में 'तकार' हलन्त व्यञ्जन 'नकार' के साथ में परवर्ती होकर संयुक्त रूप से रहा हुआ है और इसीलिये इस सूत्र के आधार से उक्त 'तकार' शौरसेनी भाषा में 'दकार' के रूप से परिणत हो गया है। यह स्पष्ट रूप से ध्यान में रहे कि सूत्र - संख्या ४- २६० में ऐसे 'तकार' को 'दकार- स्थिति' की प्राप्ति का निषेध किया गया है। अतः अधिकृत-सूत्र उक्त सूत्र का अपवाद रूप सूत्र है ।।४ - २६१ ।।
वादेस्तावति।।४-२६२॥
शौरसेन्याम् तावच्छब्दे आदेस्तकारस्य दो वा भवति।। दाव। ताव।।
अर्थः- संस्कृत भाषा के 'तावत्' शब्द के आदि 'तकार' के स्थान पर शौरसेनी भाषा में विकल्प से 'दकार' की आदेश - प्राप्ति होती है। जैसे:- तावत्-दाव अथवा ताव = तब तक ॥। ४-२६२।।
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