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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 389 अर्थ :- अपभ्रंश-भाषा में 'जाना, गमन करना' अर्थक धातु 'गम्' में संबंध-कृदन्त अर्थक प्रत्यय 'एप्पिणु और एप्पि' की संयोजना होने पर इन प्रत्ययों में अवस्थित आदि स्वर 'एकार' का विकल्प से लोप हो जाता है। जैसे:- गत्वा गम्प्पिणु अथवा गमोप्पिणु और गम्प्पि अथवा गमेप्पि जाकर के। इन्हीं चारों का प्रयोग वृत्ति में दी गई गाथाओं में किया गया है; जिनका अनुवाद इस प्रकार से है:संस्कृत : गत्वा वाराणसी नराः अथ उज्जयिनीं गत्वा।। मृताः प्राप्नुवन्ति परमं पदं, दिव्यान्तराणि मा जल्प।।१।। हिन्दी:-मनुष्य सर्वप्रथम बनारस तीर्थ को जाकर के और तत्पश्चात् उज्जयिनीतीर्थ को जाकर के मृत्यु प्राप्त करने पर सर्वोत्तम पद को प्राप्त कर लेते हैं; इसलिये अन्य पवित्र तीर्थों की बात मत कर। इस गाथा में 'एप्पिणु और एप्पि' प्रत्ययों में अवस्थित आदि स्वर 'एकार' का लोप-स्वरूप प्रदर्शित किया गया है।।१।। संस्कृत : गङ्गां गत्वा यः म्रियते शिवतीर्थ गत्वा।। क्रीडति त्रिदशावासगतः, स यमलोकं जित्वा॥ २॥ हिन्दी:-जो पवित्र गंगा नदी के स्थान पर जाकर मृत्यु प्राप्त करता है अथवा जो शिवतीर्थ-बनारस में जाकर मृत्यु प्राप्त करता है; वह यमलोक को जीतकर इन्द्रादि देवताओं के रहने के स्थान को प्राप्त करता हुआ परम सुख का अनुभव करता है। इस गाथा में 'गमेप्पिणु और गमेप्पि' पदों में रहे हुए ‘एप्पिणु तथा पप्पि' प्रत्ययों में आदि 'एकार' स्वर का अस्तित्व ज्यों का त्यों व्यक्त किया गया है। यों वैकल्पिक-स्थिति को समझ लेना चाहिये।।४-४४२।। तृनोणअः।।४-४४३॥ अपभ्रंशे तृनः प्रत्ययस्य अणअ इत्यादेशौ भवति।। हत्थि मारणउ, लोउ बोल्लणउ, पडहु वज्जणउ, सुणउ भसणउ॥ __ अर्थः-'के स्वभाव वाला' अथवा 'वाला' अर्थ में एवं 'कर्तृ' अर्थ में संस्कृत-भाषा में 'तृच्-त' प्रत्यय की प्राप्ति होती है;, तदनुसार इस 'तच्' प्रत्यय के स्थान पर अपभ्रंश-भाषा में 'अणअ ऐसे प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति का संविधान है। जैसे:- कर्तु-करणउ-करने वाला अथवा करने के स्वभाव वाला। मारयितृ=मारणअ मारने वाला अथवा मारने के स्वभाव वाला। अज्ञातृ-अजाणउ=नहीं जानने वाला। यह 'अणअ' प्रत्यय धातुओं में जुड़ता है और धातुओं में जुड़ने के पश्चात् वे शब्द संज्ञा-स्वरूप वाले बन जाते हैं; एवं उनके रूप आठों विभक्तियों में नियमानुसार चलाये जा सकते हैं। वत्ति में प्रदत्त उदाहरणों का स्पष्टीकरण यों हैं: (१) हस्ती मारयिता-हत्थि मारणउ-हाथी मारने के स्वभाव वाला है। (२) लोकः कथयिता-लोउ बोल्लणउ-जन-साधारण बोलने के स्वभाव वाला है। (३) पटहः वादयिता पडहु वज्जणउ ढोल आवाज अथवा प्रतिध्वनि करने के स्वभाव वाला है। (४) शुनकः भषिता=सुणउ भसणउ-कुत्ता भौंकने के स्वभाव वाला है।।४-४४३।। इवार्थे नं-नउ-नाइ-नावइ-जणि-जणवः।।४-४४४॥ अपभ्रंशे इव शब्दस्यार्थे नं नउ नाइ, नावइ, जणि, जणु इत्येते षट् भवन्ति।। न।। नं मल्ल-जुज्झु ससि राहु करहि।। नउ।। रवि-अत्थमणि समाउलेण कण्ठि विइणणु न छिण्णु।। चक्के खण्डु मुणालिअहे नउ जीवलु दिण्णु।।१।। नाइ।। वलियावलि-निवडण-भएण धण उद्धब्भुअ जाइ।। वल्लह-विरह-महादहहो थाह गवे सइ नाइ।। २।। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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