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388 : प्राकृत व्याकरण
अहं, (४) अणहिं, (५) एप्पि, (६) एप्पिणु (७) एवि और (८) एविणु । इन आठ प्रत्ययों में से किसी भी एक प्रत्यय को धातु में जोड़ देने पर उसका 'के लिये' ऐसा अर्थ प्रतिध्वनित हो जाता है। जैसे :- (१) त्यक्तुं = चएवं = छोड़ने के लिये । (२) भोक्तुं भुञजण - भोगने के लिये। (३) सेवितुं - सेवणहं-सेवा करने के लिये । (४) मोक्तुं मुञ्चणहिं=छोड़ने के लिये। (५) कर्त्तुम्=करेवि=करने के लिये । (६) = करेविणु-करने के लिये। (७) कर्तु करेप्पि और (८) करेप्पिणु = करने के लिये । वृत्ति में प्रदत्त गाथाओं में उपरोक्त आठों प्रकार के प्रत्ययों का प्रयोग क्रम से यों किया गया है:
(१)' एवं ' प्रत्यय; दातुं देवं = देने के लिये ।
(२) 'अण' प्रत्यय; कर्तु = करण = करने के लिये ।
(३) 'अणहं' प्रत्यय; भोक्तुं भुञ्जणहं भोगने के लिये ।
(४) 'अणहिं' प्रत्यय; भोक्तुं भुञ्जणहिं भोगने के लिये । (५) 'एप्पि' प्रत्यय; जेतुं - जेप्पि= जीतने के लिये ।
(६) ‘एप्पिणु' प्रत्यय; त्यक्तुं चएप्पिणु छोड़ने के लिये । (७) 'एवि' प्रत्यय; पालयितुम् = पालेवि = पालन करने के लिये । (८) 'एविणु' प्रत्यय; लातुं - लेविणु = लेने के लिये ।
उक्त दोनों गाथाओं का पूरा अनुवाद क्रम से यों है:
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संस्कृत : दातुं दुष्कर निजक धन, कर्तु न तपः प्रतिभाति ।। एवं सुखं भोक्तुं मनः, परं भोक्तुं न याति ॥ १ ॥
हिन्दी:-अपने धन को दान में देने के लिये दुष्करता अनुभव होती है; तप करने के लिये भावनाऐं नहीं उत्पन्न होती हैं और मन सुख को भोगने के लिये व्याकुल सा रहता है; परन्तु सुख भोगने के लिये संयोग नहीं प्राप्त होते हैं | १ || इस गाथा में हेत्वर्थ - कृदन्त के रूप में प्रयुक्त किये जाने वाले चार प्रत्यय व्यक्त किये गये हैं; जो कि दृष्टान्त रूप से ऊपर लिख दिये है || १ ||
संस्कृत :
जेतु त्यक्तुं सकलां धरां, लातुं तपः पालयितुम् ॥
विना शान्तिना तीर्थेश्वरेण, कः शक्नोति भुवनेऽपि ॥ २ ॥
हिन्दी:- सर्व प्रथम सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतने के लिये और तत्पश्चात् पुनः उसका (वैराग्य पूर्ण रीति से) परित्याग करने के लिये एवं व्रतों को ग्रहण करने के लिये तथा तप को पालने के लिये (यों क्रम से असाधारण कार्यो को करने के लिये) भगवान् शान्तिनाथ प्रभु के लिये सिवाय दूसरा कौन इस विश्व में समर्थ हो सकता है। इस गाथा में त्वर्थ - कृदन्त के अर्थ में प्रयुक्त किये जाने वाले शेष चार प्रत्ययों की उपयोगिता है; जो दृष्टान्त रूप से ऊपर लिखे जा चुके हैं ।।४-४४१ ।।
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गमेरेप्पिणवेप्पयोरेर्लुग् वा।।४-४४२।।
अपभ्रंशे गर्शर्धातोः परयोरेप्पिणु एप्पि इत्यादेशयो रेकारस्य लुग् भवन्ति वा ।
गम्प्पिणु वाणरसिहिं, नर अह उज्जेणिहिं गम्प्पि || मुआ परावहिं परम-पउ, दिव्वन्तरइं म जम्पि॥ | १ || पक्षे ।
मङ्ग गमेप्पिणु जो मुअइ, जो सिव- तित्थ गमेप्पि।। कीलदि तिदसावास, गउ, सो जम-लोउ जिणेप्पि॥ २ ॥
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