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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 387
एप्प्येप्पिण्वेव्येविणवः।।४-४४०।। अपभ्रंशे क्त्वा प्रत्ययस्य एप्पि, एप्पिणु, एवि, एविणु इत्येते चत्वार आदेशा भवन्ति। जेप्पि असेस कसाय-बल देप्पिणु अभउ जयस्सु।। लेवि महव्वय सिवु लहहिं झाएविणु तत्तस्सु।।१।। पृथग्योग उत्तरार्थः।
अर्थ:-इस सूत्र में भी संबंध-कृदन्त-वाचक प्रत्ययों का ही वर्णन है। ये प्रत्यय हेत्वर्थ-कृदन्त के अर्थ में भी प्रयुक्त होते है; इसलिये इन प्रत्ययों को एक साथ पूर्व-सूत्र में नहीं लिखते हुए पृथक्-सूत्र के रूप में इनका विचार किया गया है। इस अर्थ को प्रदर्शित करने के लिये वृत्ति में 'पृथक-योग' और 'उत्तरार्थः' ऐसे दो पद खास तौर पर दिये गये हैं। 'पृथक्-योग' का तात्पर्य यही है कि इन प्रत्ययों का सम्बन्ध अन्य कृदन्त (अर्थात् हेत्वर्थ-कृदन्त। के लिये भी है।। 'उत्तरार्थः' पद का यह अर्थ है कि इन प्रत्ययों का वर्णन और सम्बन्ध आगे के सूत्र में भी जानना। यों संबंध कृदन्त के अर्थ में (और हेत्वर्थ-कृदन्त के अर्थ में भी) जो चार प्रत्यय (विशेष) होते हैं, वे क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) एप्पि, (२) एप्पिणु, (३) एवि और (४) एविणु। जैसे:- कृत्वा करेप्पि, करेप्पिणु, करेविणु और करेवि-करके। (हेत्वर्थ-कृदन्त के अर्थ में 'करने के लिये' ऐसा तात्पर्य उद्भूत होगा)। वृत्ति में जो गाथा उद्धृत की गई है, उसमें उक्त प्रत्ययों को क्रम से इस प्रकार से व्यक्त किया है:
(१) जित्वा-जेप्पि-जीत करके। (२) दत्त्वा=देप्पिणु-दे करके। (३) लात्वा-लेवि-ले करके अथवा ग्रहण करके। (४) ध्यात्वा-झाएविणु ध्यान करके-चिंतन करके। पूरी गाथा का अनुवाद यों हैं:संस्कृत : जित्वा अशेशं कषाय-बलं, दत्त्वा अभयं जगतः।।
लात्वा महाव्रतं शिवं लभन्ते ध्यात्वा तच्वम्।।१।। हिन्दी:-भव्य प्राणी अथवा मुमुक्षु प्राणी सर्व प्रथम सम्पूर्ण कषाय-समूह को जीत करके, तत्पश्चात् विश्व-प्राणियों को अभयदान देकर के एवं महाव्रतों को ग्रहण करके अन्त में वास्तविक द्रव्य रूप तत्त्वों का ध्यान करके मोक्ष-पद को प्राप्त कर लेते है।।४-४४०।।
तुम एवमणाणाहमणहिं च॥४-४४१।। अपभ्रंशे तुमः प्रत्ययस्य एवं, अणु, अणहं, अणहिं इत्येते चत्वारः, चकारात् एप्पि, एप्पिणु, एवि, एविणु इत्येते, एवं चाष्टावादेशा भवन्ति।।
देवं दुक्करू निअय-धणु करण न तउ पडिहाइ।। एम्वइ सुहु भुञ्जणह, मणु पर भुञ्जणहिं न जाइ।।१।। जेप्पि चएप्पिणु सयल धर लेविणु तवु पालेवि।। विणु सन्ते तित्थेसरेण, को सक्कइ भुवणे वि।। २।।
अर्थ:-'के लिये इस अर्थ में हेत्वर्थ-कृदन्त का प्रयोग होता है और यह कृदन्त भी विश्व की सभी भाषाओं में पाया जाता है; तदनुसार संस्कृत-भाषा में इस कृदन्त के निर्माण के लिये 'तुम्' प्रत्यय का विधान किया गया है
और इस प्राप्त प्रत्यय 'तुम' के स्थान पर अपभ्रंश-भाषा में आठ प्रत्ययों का संविधान किया गया है, जो कि आदेशप्राप्ति के रूप में कहे जाते हैं; वे आदेश-प्राप्त आठों ही प्रत्यय क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) एवं, (२) अण, (३)
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