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________________ 386 : प्राकृत व्याकरण अवि।। बाह विछोडवि जाहि तुहुं, हउं तेवइ को दोसु।। हिअय-ट्टिउ जइ नीसरहि जाणउं मुञ्ज सरोसु।। ३।। अर्थ:-'करके' इस अर्थ में सम्बन्ध कृदन्त का विधान होता है। यह कृदन्त विश्व की सभी अर्वाचीन और प्राचीन भाषाओं में उपलब्ध है। संस्कृत और अपभ्रंश आदि भाषाओं में भी नियमानुसार इसका अस्तित्व है। तदनुसार संस्कृत-भाषा में इस अर्थ में 'क्त्वा' प्रत्यय का संविधान होता है और अपभ्रंश भाषा में इस 'कत्वा' प्रत्यय के स्थान पर आठ प्रत्ययों की आदेश प्राप्ति होती है; इन आठ प्रत्ययों में से चार प्रत्ययों की व्यवस्था तो इसी सूत्र में की गई है और शेष चार प्रत्ययों का संविधान सूत्र-संख्या ४-४४० में पृथक-रूप से किया गया है। इसमें यह कारण है कि वे शेष चार प्रत्यय संबंध-कृदन्त में भी प्रयुक्त होते हैं और हेत्वर्थ-कृदन्त में भी काम में आते हैं; यों उनकी स्थिति उभय रूप वाली है इसलिये उनका विधान पृथक् सूत्र की रचना करके किया गया है। इस सूत्र में सबंध-कृदन्त के अर्थ में जिन चार प्रत्ययों की रचना की गई है। वे क्रम से इस प्रकार हैं: (१) इ, (२) इउ (३) इवि और (४) अवि।। जैसे:-कृत्वा=(१) करि, (२) करिउ, (३) करिवि और (४) करवि-करके! लब्ध्वा =(१) लहि, (२) लहिउ, (३) लहिवि और (४) लहवि-प्राप्त करके-पा करके। वृत्ति में चारों प्रत्ययों को समझाने के लिये चार गाथाऐं उद्धृत की गई है। उनका अनुवाद क्रम से यों हैं:संस्कृत : हृदय ! यदि वैरिणो घनाः, तत् कि अभ्रे आरोहाभः।।। अस्माकं द्वौ हस्तौ यदि पुनः मारयित्वा भ्रियामहे ।।१।। हिन्दी:- हे हृदय ! यदि ये मेघ (बादल-समूह) (विरह-दुःख उत्पादक होने से) शत्रु रूप हैं तो क्या इन्हे नष्ट करने के लिये आकाश में ऊपर चढ़े? अरे ! हमारे भी दो हाथ हैं, यदि मरना ही है तो प्रथम शत्रु को मार करके पीछे हम मरेंगे।।१।। इस गाथा में 'मारयित्वा' पद के स्थान पर 'मारि' पद का उपयोग करते हुए क्त्वा' प्रत्यय के अर्थ में अपभ्रंश में 'इ' प्रत्यय का प्रयोग समझाया गया है।। (२) संस्कृतः-गज-घटान् भित्त्वा गच्छन्ति गय-घड भज्जिउ जन्ति-हाथियों के समूह को भेद कर के जाते हैं।। यहाँ पर 'भित्त्वा' के स्थान पर 'भज्जिउ' लिख करके द्वितीय प्रत्यय 'इउ' का स्वरूप प्रदर्शित किया गया है। संस्कृत : रक्षति सा विषहारिणी, द्वौ करौ चुम्बित्वा जीवम्।। प्रतिबिम्बित मुजालं जलं, याभ्यामनघगहितं पीतम्॥ ३॥ हिन्दी:-(जिसके आलिंगन करने से काम-विकार रूप विष दूर होता है ऐसी) विष को हरण करने वाली वह नायिकाविशेष अपने दोनों हाथों का चुम्बन करके अपने जीवन की रक्षा कर रही है। क्योंकि इन दोनों हाथों ने जल के अन्दर डूबकी लगाये बिना ही उस जल का पान किया है। जिसमें कि मुञ्ज राजा का (अथवा मुञ्ज नामक घास विशेष का) प्रतिबिम्ब पड़ा है। इस छंद में 'चुम्बित्वा' पद में रहे हुए संबंध-कृदन्त वाचक प्रत्यय ‘क्त्वा' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में 'चुम्बिवि' पद का निर्माण करके तदर्थक 'इवि' प्रत्यय का संयोग सूचित किया गया है।। ३।। संस्कृत : बाहू विच्छोट्य याहि तवं, भवतु तथा को दोषः ? हदय स्थितः यदि निः सरसि, जानामि मुजः सरोषः।।४।। हिन्दी:-अरे मुञ्ज ! यदि तुम भुजाओं को छुड़ा करके जाते हो तो इससे कौन सा दोष है ? अथवा कौनसी हानि है ? क्योंकि तुम मेरे हृदय में बसे हुए हो और ऐसा होने पर यदि तुम मेरे हृदय में से निकल कर भागो तो मैं जानूँ कि मुञ्ज मुझसे रूष्ट है। यहाँ पर संबंध कृदन्त-अर्थ में 'विच्छोट्य' पद आया हुआ है; जिसको भाषान्तर अपभ्रंश भाषा में 'विछोडवि' पद के रूप में किया है और ऐसा करते हुए संबंध-कृदन्त-अर्थ-वाचक-प्रत्यय 'अवि' का प्रयोग किया गया है।।४।। यों चारों प्रकार के प्रत्ययों की स्थिति को समझ लेना चाहिये।।४-४३९।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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