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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 385 (१) इएव्वउं, (२) एव्वउं और (३) एवा। जैसे:-कर्त्तव्यम् करिएव्वउं, करेव्वउं और करेवा करना चाहिये। तीनों प्रत्ययों को समझाने के लिये वृत्ति में जो गाथाएं दी गई हैं, उनका अनुवाद क्रम से यों है:संस्कृत : एतद् गृहीत्वा यन्मया यदि प्रियः उद्वार्यते।। मम कर्तव्यं किमपि नापि मर्तव्यं परं दीयते।।१।। हिन्दी:-(कोई सिद्ध पुरूष-विशेष अपनी विद्या की सिद्धि के लिये किसी नायिका-विशेष को धन आदि देकर उसके बदले में बलिदान के लिये उसके पति को लेना चाहता है; इस पर वह नायिका कहती है कि) यदि यह (धन-संपत्ति) ग्रहण करके में अपने पति का परित्याग कर देती हूँ तो फिर मेरा कुछ भी कर्त्तव्य शेष नहीं रह जाता है, सिवाय इसके कि मैं मृत्यु का आलिंगन कर लूँ। अर्थात् तत्पश्चात् मुझे मर जाना ही चाहिये। इस गाथा में कर्त्तव्यं और मर्त्तव्यं' पदों में आये हुए 'तव्यं' प्रत्यय के स्थान पर अपभ्रंश-भाषा में 'इएव्वउं' आदेश-प्राप्त प्रत्यय का प्रयोग किया गया है और ऐसा करते हुए 'करि-एव्वउं और मरिएव्वउं' पदों का निर्माण किया गया है।।१।। संस्कृत : देशोच्चाटनं, शिखि-कथनं, धन-कुट्टनं यद् लोके।। मञ्जिष्ठया अतिरक्तया, सर्व सोढव्यं भवति।। २।। हिन्दी:-मंजिष्ठ नाम वाला एक पौधा होता है, जो कि अत्यधिक लाल वर्ण वाला होता है और इस लालिमा के कारण से ही वह जन साधरण द्वारा आकर्षित किया जाकर सर्व प्रथम तो जड़-मूल से ही उखाड़ा जाता है और तत्पश्चात् अग्नि पर क्वाथ के रूप में खूब ही पकाया जाता है; एवं इसके बाद 'रंग-प्राप्ति के लिये लोहे के भारा घन से कूटा जाता है; यों अपनी रक्त-वर्णता के कारण से उसे सब-कुछ सहन-करने योग्य स्थिति बनना पडता है। इस गाथा में संस्कृत-पद 'सोढव्यं के स्थान पर अपभ्रंश-भाषा में 'सहेव्वउं पद का प्रयोग करते हुए यह समझाया गया है कि 'तव्यं' प्रत्यय के स्थान पर अपभ्रंश-भाषा में द्वितीय प्रत्यय 'एव्वउं' की आदेश-प्राप्ति हुई है।। २।। संस्कृत : स्वपितव्यं परं वारितं पुष्पवतीभिः समानम्।। जागरितव्यं पुनः कः धरति ? यदि स वेदः प्रमाणम्।। ३।। हिन्दी:-ऋतुमती स्त्रियों के साथ 'सोना चाहिये' इसका निषेध किया गया है। तो फिर ऐसा कौन है? जिसको जागता हुआ रहना चाहिये। इसके लिये वेद ही प्रमाण-स्वरूप है। इस गाथा में 'स्वपितव्यं और जागरितव्यं' पदों में आये हुए 'तव्यं' प्रत्यय के स्थान पर अपभ्रंश-भाषा में तृतीय प्रत्यय 'एवा' का प्रयोग करते हुए 'सोएवा और जग्गेवा' पद-रूपों का निर्माण किया गया है।। ३।। यों संस्कृत-प्रत्यय 'तव्यं' के स्थान पर अपभ्रंश-भाषा में उक्त प्रकार से तीन प्रत्ययों की आदेश-प्राप्ति की स्थिति को समझ लेना चाहिये। 'चाहिये' अर्थक इस कृदन्त का संस्कृत-व्याकरण में 'विधि-कृदन्त' के नाम से उल्लेख किया जाता है। अग्रेजी में इसको (Potential Passples Participles) कहते है।।४-४३८।। क्त्व इ-इउ-इवि-अवयः।।४-४३९।। अपभ्रंशे कत्वा प्रत्ययस्य इ इउ अवि इत्येते चत्वार आदेशा भवन्ति।। इ।। हिअडा जइ वेरिअ, धणा तो किं अब्भि चडाहु।। अम्हाहिं बे हत्थडा जइ पुणु मारि मराहुं॥१॥ इउ। गय-घड भज्जिउ जन्ति।। इवि।। रक्खइ सा विस-हारिणी, बे कर चुम्बिवि जीउ।। पडिविम्बिअ-मुंजालु जलु जेहिं अहोडिअ पीउ।। २।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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