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________________ 390 : प्राकृत व्याकरण नावइ।। पेक्खेविणु मुहु जिण-वरहो दीहर-नयण सलोणु।। नावइ गुरू-मच्छर-भरिउ, जलणि पवीसइ लोणु।। ३।। जणि।। चम्पय-कुसुमहो मज्झि सहि भसलु पइट्ठर।। सोहइ इन्द नीलु जणि कणइ बइठ्ठउ।।४॥ जणु। निरूवम-रसु पिएं पिएवि जणु॥ अर्थ:-'के समान' अथवा 'के जैसा' अर्थ में संस्कृत भाषा में 'इव' अव्यय-शब्द का प्रयोग होता है; तदनुसार इस 'इव' अव्यय शब्द के स्थान पर अपभ्रंश-भाषा में छह शब्दों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार है:- (१) नं, (२) नउ, (३) नाइ, (४) नावइ, (५) जणि और (६) जणु। इनके उदाहरण यों है:- (१) पशुरिव-नं पसु पशु के समान, पशु के जैसा। (२) निवेशितः इवनउ निवेसिउ-स्थापित किये हुए के समान। (३) विलिखितः इव-नाइ लिहिउ- (पत्थर पर) खुदे हुए के समान। (४) प्रतिबिम्बितः इव=नावइ पडिबिम्बिउ-प्रतिछाया के समान। (५) स्वभावः इव जणि सहजु-स्वभाव के समान; और (६) लिखितः इव जणु लिहिउ-लिखे हुए के समान। वृत्ति में आये हुए उदाहरणों का अनुवाद क्रम से यों हैं: (१) संस्कृतः-मल्ल-युद्धं इव शशि राहू कुरूतः=नं मल्ल-जुज्झु ससि-राहु करहिं पहलवानों की लड़ाई के समान चन्द्रमा और राहू दोनों ही युद्ध करते हैं। यहाँ पर 'इव' अर्थ में आदेश-प्राप्त शब्द 'नं' का प्रयोग किया गया है। (२)संस्कृत : रव्यस्तमने समाकुलेन कण्ठे वितीर्णः न छिन्नः।। चक्रेण खण्डः मृणालिकायाः ननु जीवार्गलः दत्तः।।१।। हिन्दी:-सूर्य-देव के अस्त हो जाने पर धबड़ाये हुए चकवा नामक पक्षी के द्वारा कमलिनी का टुकड़ा यद्यपि मुख में ग्रहण कर लिया गया है; परन्तु उसको गले के अन्दर नहीं उतारा है; मानो इस बहाने उसने अपने जीवन की रक्षा के लिये अर्गला-भागल' के समान कमलिनी के टुकड़े को धारण किया हो। इस गाथा में 'इव' अर्थक द्वितीय शब्द 'नउ' को प्रदर्शित किया है।।१।। (३)संस्कृत : वलयावलीनिपतनभयेन धन्या ऊर्ध्व-भुजा याति।। वल्लभ-विरह-महाहृदस्य स्ताधं गवेषतीव।। २।। हिन्दी:-वह धन्य स्वरूपा सुन्दर नायिका 'अपनी चूड़ियाँ कहीं नीचे नहीं गिर जाये' इस आशंका से अपनी भुजा को ऊपर उठाये हुए ही चलती है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि मानों वह अपने प्रियतम के वियोग रूपी महाकुंड के तलिये की स्थिति का अनुसंधान कर रही हो। यहाँ पर 'इव' के स्थान पर आदेश-प्राप्त तृतीय शब्द 'नाइ' को प्रयुक्त किया गया है।। २।। (४)संस्कृत : प्रेक्ष्य मुखं जिनवरस्य दीर्घ-नयनं सलावण्यम्।। ननु गुरू मत्सर भरितं, ज्वलने प्रविशति लवणम्॥ ३॥ __हिन्दी:-भगवान् जिनेन्द्रदेव के सुदीर्घ आँखों वाले सुन्दरतम मुख को देख करके मानों महान् ईर्ष्या से भरा हुआ लवण-समुद्र बड़वानल नामक अग्नि में प्रवेश करता है। लवण-समुद्र अपनी सौम्यता पर एवं सुन्दरता पर अभिमान करता था, परन्तु जब उसे जिनेन्द्रदेव के मुख कमल की सुन्दरता का अनुभव हुआ तब वह मानो लज्जा-ग्रस्त होकर अग्नि-स्नान कर रहा हो; यों प्रतीत होता है। इस छन्द में 'इव' अवयय के स्थान पर प्राप्त चौथे शब्द 'नावई' के प्रयोग को समझाया गया है।।४।। (५)संस्कृत : चम्पक-कुसुमस्य मध्ये सखि ! भ्रमरः प्रविष्टः।। शोभते इन्द्रनीलः ननु कनके उपवेशितः।।४।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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