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________________ 52 : प्राकृत व्याकरण 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; २-१०७ से प्राप्त 'ज्ज' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क' का लोप और ३-४९ से मूल संस्कृत शब्द 'आर्यिका में स्थित अन्त्य 'आ' के स्थान पर संबोधन के एकवचन में संस्कृत के समान ही 'ए' की प्राप्ति होकर हे अज्जिए' रूप सिद्ध हो जाता है। ___ हे प्रार्यिके! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप हे पज्जिए! होता है इससे सूत्र-संख्या २-७९ से प्रथम 'र' का लोप; १-८४ से 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ज्' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क्' का लोप और ३-४१ से मूल संस्कृत शब्द 'प्रार्यिका' में स्थित अन्त्य 'आ' के स्थान पर संबोधन के एकवचन में संस्कृत के समान ही 'ए' की प्राप्ति होकर 'हे पज्जिए' रूप सिद्ध हो जाता है। हे माले! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप हे माला! होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-४१ से संबोधन के एकवचन में मूल शब्द 'माला' के अन्त्य 'आ' को 'यथा-स्थितरूपवत्' अर्थात् ज्यों की त्यों स्थिति की प्राप्ति होकर हे माला रूप सिद्ध हो जाता है। हे पितृ-स्वसः! संस्कृत संबोधन एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप हे पिउच्छा! होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से 'त्' का लोप; १-१३१ से 'ऋ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; २-१४१ से 'स्वसृ' के स्थान पर 'छा' आदेश-प्राप्त; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ्' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति ; और ३-४१ से संबोधन के एकवचन में अन्त्य 'आ' की स्थिति ज्यों की त्यों कायम रह कर हे पिउच्छा रूप सिद्ध हो जाता है। हे मातृ-स्वसः! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप हे माउच्छा ! होता है। इसकी साधनिका उपर्युक्त हे पिउच्छा ! में प्रयुक्त-सूत्रों के अनुसार ही होकर 'हे माउच्छा' रूप सिद्ध हो जाता है। __ हे अम्ब! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप हे अम्मो! होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'ब्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'ब' के पश्चात् शेष रहे हुए 'म' को द्वित्व 'म्म' की प्राप्ति और ३-४१ की वृत्ति से संबोधन के एकवचन में प्राप्त प्राकृत रूप 'अम्मा' के अन्त्य 'आ' के स्थान पर 'ओ' का प्राप्ति होकर 'हे अम्मो' ! रूप सिद्ध हो जाता है। भणामि संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप भी भणामि होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से हलन्त धातु 'भण्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५४ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति और ३-१४१ से वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष के एकवचन में 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'भणामि' रूप सिद्ध हो जाता है। भणितान् संस्कृत कृदन्तात्मक विशेषण द्वितीयान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भणिए' होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से हलन्त धातु 'भण' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५६ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' को 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से संस्कृत कृदन्तात्मक प्राप्त प्रत्यय 'त्' का लोप; ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त संस्कृतीय प्रत्यय 'शस्' के स्थानीय रूप 'न्' का प्राकृत में लोप और ३-१४ से प्राप्त रूप 'भणिआ' में स्थित अन्त्य संस्कृत कृदन्तात्मक प्रत्यय 'त' में से शेष 'अ' के स्थानीय रूप 'आ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर 'भणिए' रूप सिद्ध हो जाता है। ३-४१।। ईदूतोर्हस्वः ।।३-४२॥ आमन्त्रणे सो परे ईदूदन्तयोर्हस्वो भवति ॥ हे नइ । हे गामणि ! हे समणि ! हे वहु! हे खलपु! अर्थ- दीर्घ ईकारान्त और दीर्घ ऊकारान्त प्राकृत स्त्रीलिंग शब्दों में संबोधन के एकवचन में 'सि' प्रत्यय परे रहने पर विधानुसार प्राप्त प्रत्यय 'सि का लोप होकर अन्त्य दीर्घ स्वर के स्थान पर सजातीय हस्व स्वर की प्राप्ति होती है। जैसे:हे नदि! हे नइ ! हे ग्रामणि हे गामणि! हे श्रमणि! हे समणि ! हे वधु= हे वहु। और हे खलपु! हे खलपु इत्यादि।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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