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________________ 14 : प्राकृत व्याकरण महुँ । साविति किम् । गिरिं। बुद्धिं । तरुं । धेj।। केचित्तु दीर्घत्वं विकल्प्य तदभावपक्षे सेर्मादेशमपीच्छन्ति। अग्नि । निहिं। वाउं। विहुं।। ___ अर्थः- प्राकृत इकरान्त और उकारान्त शब्दों में से नपुसंकलिंग वाले शब्दों को छोड़कर शेष रहने वाले पुल्लिंग और स्त्रीलिंग शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्त होने वाले 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को अथवा 'उ' को दीर्घ 'ई' की अथवा दीर्घ 'ऊ' की यथाक्रम से प्राप्ति होती है। सारांश यह है कि इकारान्त, उकारान्त पुल्लिग अथवा स्त्रीलिंग शब्दों के अन्त्य हस्व स्वर को प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय का लोप होकर दीर्घ स्वर की प्राप्ति होती है। जैसे:- गिरिः गिरी; बुद्धिः=बुद्धी; तरु:-तरू और धेनुः धेणू इत्यादि। प्रश्न:- इकारान्त अथवा उकारान्त नपुसंकलिंग वाले शब्दों का निषेध क्यों किया गया है? उत्तर : इकारान्त अथवा उकारान्त नपुंसकलिंग वाले शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में सूत्र-संख्या ३-२५ के विधान से प्राप्त 'सि' के स्थान पर हलन्त 'म्' की प्राप्ति होती है; अतः ऐसे नपुंसकलिंग वाले शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग अथवा स्त्रीलिंग में प्राप्त होने वाली दीर्घता का अभाव प्रदर्शित करना पड़ा है। जैसे-दधिम् दहिं और मधुम्-महुं इत्यादि। प्रश्नः- मूल सूत्र में 'सौ' अर्थात् 'सि' प्रत्यय के प्राप्त होने पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को अथवा 'उ' को दीर्घता की प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों लिखा गया है? उत्तरः- इकारान्त और उकारान्त पुल्लिंग अथवा स्त्रीलिंग शब्दों में अन्त्य हस्व स्वर की दीर्घता 'सि' प्रत्यय के प्राप्त होने पर होती है; न कि द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर। जैसेः- गिरिम् गिरिं अर्थात् पहाड़ को; बुद्धिम् बुद्धिं अर्थात् बुद्धि को; तरुम्=तरूं अर्थात् वृक्ष को और धेनुम् धेणुं अर्थात् गाय को; इत्यादि। इन उदाहरणों में द्वितीया विभक्ति-बोधक 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर अन्त्य हस्व स्वर ज्यों का त्यों ही बना रहा है। जबकि प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अन्त्य हस्व स्वर दीर्घ हो जाता है; ऐसा अन्तर प्रदर्शित करने के लिये ही मूल सूत्र में 'सौ' अर्थात् 'सि' प्रत्यय के परे रहने पर इस प्रकार का उल्लेख करना पड़ा है। ___ कोई-कोई प्राकृत भाषा के विद्वान ऐसा भी मानते हैं कि इकारान्त और उकारान्त पुल्लिग अथवा स्त्रीलिंग शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त 'म्' आदेश की प्राप्ति भी होती है। ऐसी स्थिति में अन्त्य हस्व स्वर को दीर्घता की प्राप्ति भी नही होगी। इस प्रकार 'सि' प्रत्यय के अभाव में दीर्घता की प्राप्ति भी नहीं होगी। इस प्रकार 'सि' प्रत्यय के अभाव में दीर्घता का भी अभाव करके प्रथमा-विभक्तिबोधक 'म्' प्रत्यय की आदेश रूप कल्पना वैकल्पिक रूप से करते हैं। जैसे- अग्नि-अग्गि; निधिः-निहिं; वायुः वाउ और विधुः अथवा विभुः-विहुं। इत्यादि। इन उदाहरणों में प्रथमा विभक्तिबोधक 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' रूप प्रत्यय की कल्पना की गई है। किन्तु यह ध्यान में रहे कि ऐसे रूपों का प्रचलन अत्यल्प है- गौण है। 'बहुलाधिकार' से ही ऐसे रूपों को कहीं-कहीं पर स्थान दिया जाता है। सर्व-सामान्य रूप से इनका प्रचलन नहीं है। ___ गिरिः- संस्कृत प्रथमान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप गिरी होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर गिरी रूप सिद्ध हो जाता है। बुद्धिः-संस्कृत प्रथमान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप बुद्धी होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' के स्थान पर अन्त्य 'इ' को 'ई' की प्राप्ति होकर बुद्धी रूप सिद्ध हो जाता है। तरू: संस्कृत प्रथमान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप तरू होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' के स्थान पर अन्त्य 'उ' को 'ऊ' की प्राप्ति होकर तरू रूप सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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