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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 15 धेनुः संस्कृत प्रथमान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप धेणू होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' के स्थान पर अन्त्य 'उ' को 'ऊ' की प्राप्ति होकर धेणू रूप सिद्ध हो जाता है।
दधिं संस्कृत प्रथमान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप दहिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ३-३५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त हलन्त प्रत्यय 'म्' का अनुस्वार होकर दहि रूप सिद्ध हो जाता है।
मधुम् संस्कृत प्रथमान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप महुं होता है। इसकी साधनिका 'दहिं के समान की होकर महुँ रूप सिद्ध हो जाता है। ___ 'गिरि रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है।
बुद्धिम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप बुद्धिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' का अनुस्वार होकर बुद्धिं रूप सिद्ध हो जाता है।
तरुम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप तरुं होता है। इसकी साधनिका उपर्युक्त बुद्धिम के समान ही होकर तरुं रूप सिद्ध हो जाता है।
धेनुम्- संस्कृत द्वितीयान्त् एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप घेणुं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और शेष साधनिका का उपर्युक्त 'बुद्धि' के समान ही होकर धेणुं रूप सिद्ध हो जाता है। ___ अग्निः - संस्कृत रूप है। इसका आर्ष प्राकत रूप अग्गि होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'न्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'न' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ग' को द्वित्व 'ग्ग' की प्राप्ति और ३-१९ की वृत्ति से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' आदेश की प्राप्ति होकर अग्गि रूप सिद्ध हो जाता है।
निधिः संस्कृत रूप है। इसका आर्ष प्राकृत रूप निहिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-१९ की वृत्ति से प्रथमा विभक्ति एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' आदेश की प्राप्ति होकर निहिं रूप सिद्ध हो जाता है।
वायु:- संस्कृत रूप है इसका आर्ष प्राकृत रूप वाउं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'य' का लोप और ३-१९ की वृत्ति से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' आदेश की प्राप्ति होकर वाउं रूप सिद्ध हो जाता है।
विभुः- संस्कृत रूप है। इसका आर्ष प्राकृत रूप विहुं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'भ्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होकर ३-१९ की वृत्ति से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' आदेश की प्राप्ति होकर विहुं रूप सिद्ध हो जाता है।।२-१९।।
पुसि जसो डउ डओ वा ॥३-२०।। इदुत इतीह पञ्चम्यन्तं संबध्यते। इदुतः परस्य जसः। पुसि अउ अओ इत्यादेशौ डितौ वा भवतः । अग्ग्उ अग्गओ। वायउ वायओ चिटन्ति।। पक्षे। अग्गिणो। वाउणो। शेषे अदन्तवत् भावात् अग्गी। वाऊ।। पुंसीति किम्। बुद्धीओ। धेणूओ। दहीइं। महुइं । जस् इति किम्। अग्गी। अग्गिणो। वाऊ। वाउणो। पेच्छइ।। इदुत इत्येव। वच्छा ।
अर्थः- इस मूल-सूत्र में 'इकारान्त उकारान्त' से ऐसा उल्लेख नहीं किया गया है; अतः अर्थ- स्पष्टीकरण के उद्देश्य से 'इदुतः'-इकारान्त उकारान्त शब्दों से ऐसा पंचमी बोधक संबंध-वाचक अध्याहार कर लेना चाहिये। तदनुसार इकारान्त
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