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________________ 394 : प्राकृत व्याकरण सूर-निवारणाय-नीचे रहे हुए सूर्य की गरमी को अथवा धूप को रोकने के लिये। इस उदाहरण में 'निवारणाय' पद में संस्कृत-भाषा के अनुसार चतुर्थी विभक्ति के एक वचनार्थक प्रत्यय 'आय' की प्राप्ति हुई है। इस प्राप्त प्रत्यय 'आय' का संविधान प्राकृत भाषा में कहीं पर भी नहीं है। फिर भी प्राकृत-भाषा में इसे अशुद्ध नहीं माना जाता है इसलिये इसकी सिद्धि संस्कृत-भाषा के अनुसार कर लेनी चाहिये। प्राकृत-भाषा में छाती-अर्थक 'उर' शब्द है; जिसके दो रूप तो सप्तमी विभक्ति के एकवचन में प्राकृत-भाषा के अनुसार होते हैं और एक तृतीय रूप संस्कृत-भाषा के अनुसार भी होता है। जैसे:- उरसि-उरे और उरम्मि अथवा उरसि छाती पर छाती में दूसरा उदाहरण यों है:-शिरसि सिरे और सिरम्मि अथवा सिरसि-मस्तक में अथवा मस्तक तालाबा पर। तीसरा उदाहरण वृत्ति के अनुसार इस प्रकार से है:-सरसि=सरे और सरम्मि अथवा सरसि तालाब में अथवा पर। यों संस्कृत भाषा के अनुसार प्राकृत आदि भाषाओं में उपलब्ध पदों की सिद्धि संस्कृत के समान ही समझ कर इन्हें शुद्ध ही मानना चाहिये। सूत्र के अन्त में 'सिद्धम्' ऐसे मंगल वाचक पद की रचना 'मंगलाचरण' की दृष्टि से की गई है। इससे यही प्रतिध्वनित होता है कि इस ग्रन्थ के पठन-पाठन करने वालों का जीवन दीर्घायुवाला और स्वस्थ रहने वाला हो तथा वे अपने जीवन में अभ्युदय अर्थात् सफलता तथा यश प्राप्त करे।। आचार्य हेमचन्द्र ऐसी पवित्र-कामना के साथ इस अत्युत्तम ग्रन्थ की समाप्ति करते हैं:वृत्ति में दी हुई गाथा का पूरा अनुवाद क्रम से यों हैं:संस्कृत : अधः स्थित-सूर्य-निवारणाय; छत्रं अधः इव वहन्ति।। जयति सशेषाश्वाह-श्रास-दूरोत्क्षिप्ता पृथिवी।।१।। हिन्दी:-वराह-अवतार के तीक्ष्ण श्वास से दूर फेंकी हुई पृथ्वी शेषनाग के फणों के साथ जय शील होती है। नीचे रहे हुए सूर्य के कारण से उत्पन्न होने वाले ताप को रोकने के लिये मानों शेष-नाग के फणों को ही छत्र रूप में परिणत करती हुई एवं इन्हें नीचे वहन करती हुई जय-विजयशील होती है।।४-४४८। इत्याचार्य श्री हेमचन्द्र विरचितायां सिद्ध हेम चन्द्राभिधान-स्वोपज्ञ-शब्दानुशासन वृत्तावष्टमस्याध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः। इति श्री हेमचन्द्र आचार्य द्वारा बनाई गई "सिद्ध हेमचन्द्र" नामक प्राकृत-व्याकरण समाप्त हुई। इसमें आठवें अध्याय का चौथा पाद भी समाप्त हुआ। इसकी वृत्ति भी मूल ग्रंथकार द्वारा ही बनाई गई है। समाप्ता चेयं सिद्ध हेमचन्द्रशब्दानुशासनावृत्तिः "प्रकाशिका" नामेति। मूल ग्रन्थकार द्वारा ही इस अष्टाध्यायी "सिद्ध हेमचन्द्र" नामक व्याकरण पर जो वृत्ति अर्थात् टीका बनाई गई हैं; उसका नाम "प्रकाशिका" टीका है; वह भी यहाँ पर समाप्त हो रही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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