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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 393 प्राकृत-पैशाची-शौरसेनीष्वपि भवति। चिष्ठदि। अपभ्रंशे रेफस्याधो वा लुगुक्तो मागध्यामपि भवति। शद-माणुश-मंश-मालके कुम्भ शहअ-वशाहे शचिदे इत्याद्यन्ययपि दृष्टव्यम्।। न केवलं भाषालक्षणानां त्याद्यदेशानामपि व्यत्ययो भवति। ये वर्तमाने काले प्रसिद्धास्ते भूतेपि भवन्ति। अह पेच्छइ रहु-तणओ।। अथ प्रेक्षांचक्रे इत्यर्थः।। आभासइ रयणीअरे। आबभाषे रचनीचरा-नित्यर्थः।। भूते प्रसिद्धा वर्तमानेपि। सोहीअ एस वणठो। शृणोत्येष वणठ इत्यर्थः।। ___ अर्थः-प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका पैशाची और अपभ्रंश भाषाओं में व्याकरण सम्बन्धी जो नियम उपनियम आदि विधि-विधान हैं, उनका परस्पर में व्यत्यय अर्थात् उलट-पुलट पना भी पाया जाता है। जैसे मागधी-भाषा में 'तिष्ठ' के स्थान पर सूत्र-संख्या ४-२९८ के अनुसार 'चिष्ठ' रूप की आदेश-प्राप्ति होती है; उसी प्रकार 'प्राकृत, पैशाची और शौरसेनी' भाषाओं में भी होता है। जैसे:-तिष्ठति चिष्ठुदि-वह बैठता है। अपभ्रंश-भाषा में सूत्र-संख्या ४-३९८ में ऐसा विधान किया गया है कि-अधो रूप में रहे हुए रेफ रूप 'रकार' वर्ण का विकल्प से लोप हो जाता है; यही नियम मागधी भाषा में भी देखा जाता है। भाषाओं से सम्बन्धित यह व्यत्यय केवल नियमोपनियमों में ही नहीं होता है किन्तु काल बोधक प्रत्ययों में भी व्यत्यय देखा जाता है; तदनुसार वर्तमानकाल वाचक प्रत्ययों के सद्भाव में भूतकाल-वाचक अर्थ भी निकाल लिया जाता है और इसी प्रकार से भूतकाल-बोधक प्रत्ययों के सद्भाव में वर्तमानकाल-वाचक अर्थ भी समझ लिया जाता है। जैसे: (१) अथ प्रेक्षांचक्रे रघु-तनयः अह पेच्छइ रहु-तणओ=इसके बाद में रघु के लड़के ने देखा। (२) आबभाषे रचनीचरान् आभासइ रयणीअरे-राक्षसों को कहा। इन उदाहरणों में वर्तमानकाल-वाचक 'इ' प्रत्यय का अस्तित्व है; परन्तु 'अर्थ' भूतकाल-वाचक कहा गया है; यों काल-वाचक व्यत्यय इन भाषाओं में देखा जाता है। भूतकाल का सद्भाव होते हुए भी अर्थ वर्तमानकाल का निकाला जाता है; इस सम्बन्धी उदाहरण यों हैं: शृणोति एष वण्ठः सोहीअ एस वण्ठो यह बौना (वामन) सुनता है। इस उदाहरण में 'सोहीअ क्रियापद में भूतकालीन प्रत्यय 'हीअ' की प्राप्ति हुई है; परन्तु अर्थ वर्तमानकालीन ही लिया गया है।। यों काल-बोधक प्रत्ययों में भी व्यत्यय-स्थिति इन भाषाओं में देखी जाती है।।४-४४७।। शेषं संस्कृतवत् सिद्धम्।।४-४४८।। शेषं यदत्र प्राकृतादि भाषासु अष्टमे नोक्तं तत्सप्ताध्यायी निबद्ध संस्कृतवदेव सिद्धम्।। हेट्ट-ट्ठिय-सूर-निवारणाय, छत्तं अहो इव वहन्ती।। जयइ ससेसा वराह-सास-दूरूक्खुया पुहवी।।१॥ अत्र चतुर्थ्या आदेशो नोक्तः स च संस्कृतवदेव सिद्धः। उक्तमपि कचित् संस्कृतवदेव भवति। यथा प्राकृते उरस् शब्दस्यसप्तम्येक वचनान्तस्य उरे उरम्मि इति प्रयोगौ भवतस्तथा कचिदुरसीत्यपि भवति।। एवं सिरे। सिरम्मि। सिरसि।। सरे। सरम्मि। सरसि।। सिद्ध-ग्रहणं मङ्गलार्थम्। ततो ह्यायुष्मच्छोतृकताम्युदयश्चेति।। अर्थः-इस आठवें अध्याय में प्राकृत, शौरसेनी आदि छह भाषाओं का व्याकरण लिखा गया है और इन भाषाओं की विशेषताओं के साथ-साथ अनेक नियम तथा उपनियम समझाये गये हैं; इनके अतिरिक्त यदि इन भाषाओं में संस्कृत भाषा के समान पदों की, प्रत्ययों की, अव्ययों की आदि बातों की समानता दिखलाई पड़े तो उनकी सिद्धि संस्कृत भाषा में उपलब्ध नियमोपनियमों के अनुसार समझ लेनी चाहिये। तदनुसार संस्कृत-भाषा सम्बन्धी सम्पूर्ण व्याकरण की रचना इस आठवें अध्याय के पूर्व रचित सातों अध्यायों में की गई है। ऐसी भलामण ग्रन्थकार इस सूत्र की वृत्ति में कर रहे हैं; सो ध्यान में रखी जानी चाहिये। ग्रन्थकार कहते हैं कि-'प्राकृत आदि छह भाषाओं से सम्बन्धित जिस विधि-विधान का उल्लेख इस आठवें अध्याय में नहीं किया गया है; उस सम्पूर्ण विधि-विधान का कार्य संस्कृत-व्याकरण के अनुसार ही सिद्ध हुआ जान लेना चाहिये।' जैसे:-अधः स्थित सूर्य-निवारणाय हेट्ठि-ट्ठिय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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