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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 99 स्वर 'अ' के स्थान पर 'आगे तृतीया एकवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ३-६ से प्राप्तांग 'णे' में तृतीया विभक्ति एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' आदेश की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप 'ण' सिद्ध हो जाता है।
'भणि रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-१९३ में की गई है। 'तो' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-६७ में की गई है। 'णेण' रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है।
कर-तल स्थिता संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप कर-यल-ठुिआ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से प्रथम 'त्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ४-१६ से 'स्थ' के स्थान पर 'ठ्' की आदेश-प्राप्ति, २-८९ से प्राप्त 'ठ्' को द्वित्व'ठ्ठ' की प्राप्ति २-९० से प्राप्त पूर्व'' के स्थान पर 'ट्' की प्राप्ति और १-१७७ से द्वितीय 'त्' का लोप होकर कर-यल- ठुिआ रूप सिद्ध हो जाता है।
भणिअ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-१९३ में की गई है। 'च' अव्यय की सिद्धि संख्या १-२४ में की गई है।
तया संस्कृत तृतीया एकवचनान्त स्त्रीलिंग के सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप णाए होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-७० से मूल संस्कृत सर्वनाम 'तद्' के स्थान पर स्त्रीलिंग अवस्था में प्राकृत में 'णा' अंग की आदेश प्राप्ति और ३-२९ से प्राप्तांग ‘णा' में तृतीया विभक्ति के एकवचन में आकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति होकर णाए रूप सिद्ध हो जाता है।
तैः संस्कृत तृतीया बहुवचनान्त पुल्लिग के सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप णेहिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-७० से मूल संस्कृत सर्वनाम 'तद्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' अंग रूप की प्राप्ति; ३-१५ से प्राप्तांग 'ण' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे तृतीया बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ३-७ से प्राप्तांग ‘णे' में तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रोहिं रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'कयं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२६ में की गई है।
ताभिः संस्कृत तृतीया बहुवचनान्त स्त्रीलिंग के सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप णाहिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-७० से मूल संस्कृत सर्वनाम 'तद्' के स्थान पर प्राकृत में पुल्लिग में 'ण' अंग रूप की प्राप्ति; ३-३२ से एवं २-४ के निर्देश से पुल्लिगत्व से स्त्रीलिंगत्व के निर्माण हेतु 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होने से ‘णा' अंग का सद्भाव; और ३-७ से प्राप्तांग ‘णा' में तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में हिं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर णाहिं रूप सिद्ध हो जाता है। 'कयं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १–१२६ में की गई है। ३-७०।।।
किमः कस्त्र-तसोश्च ।। ३-७१।। किमः को भवति स्यादो त्र तसोश्च परयोः को। के। को के। केण॥ त्र। कत्थ।। तस्। कओ। कत्तो। कदो।
अर्थ:-संस्कृत सर्वनाम 'किम्' में संस्कृत प्राप्तव्य विभक्तिबोधक प्रत्ययों के स्थानीय प्राकृत विभक्तिबोधक प्रत्ययों के परे रहने पर अथवा स्थानवाचक संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'त्र' के स्थानीय प्राकृत प्रत्यय 'हि-ह-त्थ' प्रत्ययों के रहने पर अथवा सम्बन्ध-सूचक संस्कृत प्राप्त प्रात्यय 'तस्' के स्थानीय प्राकृत प्रत्यय 'त्तो अथवा दो' प्रत्ययों के परे रहने पर 'किम्' के स्थान पर प्राकृत में 'क' अंग रूप की आदेश प्राप्ति होती है। विभक्ति-बोधक प्रत्ययों से संबंधित उदाहरण इस
प्रकार हैं- क-को; के =के; कम्-कं; कान्=के और केन-केण इत्यादि। Jain Education International
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