SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 25 षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङस्' के स्थानीय रूप- 'अस्-स्य' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप कमलस्स सिद्ध हो जाता है।।३-२३।। टो णा ॥३-२४॥ पुं क्लीबे वर्तमानादिदुतः परस्स टा इत्यस्य णा भवति।। गिरिणा । गामणिणा । खलपुणा। तरुणा। दहिणा। महुणा।। ट इति किम्। गिरी । तरू। दहिं। महुं।। पुंक्लीब इत्येवा बुद्धी। धेणूअ कयं।। इदुत इत्येव । कमलेण।। अर्थः-प्राकृत इकारान्त उकारान्त पुल्लिंग और नपुसंकलिंग वाचक शब्दों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। जैसे:- गिरिणा=गिरिणा अर्थात् पर्वत से; ग्रामण्या गामणिणा-ग्राम के स्वामी से; अथवा नाई से खलप्वा-खलपुणा अर्थात् झाडु देने वाले पुरुष से; तरुणा तरुणा अर्थात् वृक्ष से; दध्ना=दहिणा अर्थात् दही से और मधुना-महुणा अर्थात् मधु से। इन उदाहरणों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में प्राकृत ‘णा' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है। प्रश्न:- तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर ही 'णा' होता है; ऐसा क्यों कहा गया है? उत्तरः- तृतीया विभक्ति के एकवचन के अतिरिक्त किसी भी विभक्ति के किसी भी वचन के प्रत्ययों के स्थान पर 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होती है। ऐसा प्रदर्शित करने के लिये ही लिखा गया कि 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। जैसे:- गिरिः=गिरी अर्थात् पहाड़; तरु:-तरू अर्थात् वृक्ष; दधि-दहिं अर्थात् दही और मधु-महुं अर्थात् मधु। इन उदाहरणों में 'णा' प्रत्यय का अभाव प्रदर्शित करके यह सिद्ध किया गया है कि 'णा' प्रत्यय केवल तृतीया विभक्ति के एकवचन में ही प्राप्त होता है; न कि किसी अन्य विभक्ति में। प्रश्नः- पुल्लिंग और नपुसंकलिंग ऐसे शब्दों का उल्लेख क्यों किया गया है? उत्तरः- इकारान्त और उकारान्त शब्द स्त्रीलिंग वाचक भी होते हैं परन्तु उन इकारान्त और उकारान्त स्त्रीलिंग वाचक शब्दों में तृतीया विभक्ति के एकवचन में 'टा' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर भी इस प्राप्तव्य 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'णा' की आदेश प्राप्ति नहीं होती है; अतः 'टा' के स्थान पर 'णा' आदेश प्राप्ति केवल पुल्लिग और नपुसंकलिंग वाले शब्दों में ही होती है; यह बतलाने के लिये ही पुल्लिंग और नपुसंकलिंग जैसे शब्दों का सूत्र की वृत्ति के प्रारंभ में प्रयोग किया गया है। जैसे:-बुद्धया बुद्धीअ अर्थात् बुद्धि से धेन्वा कृतम्-धेणूअकयं अर्थात् गाय से किया हुआ है। इन उदाहरणों में तृतीया विभक्ति के एकवचन का 'टा' प्रत्यय प्राप्त हुआ है; परन्तु 'टा' के स्थान पर 'णा' नहीं होकर सूत्र-संख्या ३-२९ से 'अ' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है; यों अन्यत्र भी जान लेना चाहिये। प्रश्न:- ‘इकारान्त और उकारान्त' ऐसा उल्लेख क्यों किया गया है? उत्तरः- इसमें ऐसा कारण है कि प्राकृत में आकारान्त तथा अकारान्त आदि शब्द भी होते हैं; परन्तु उनमें भी 'टा' के स्थान पर 'णा' आदेश प्राप्ति नहीं होती है; अतः इकारान्त और उकारान्त जैसे शब्दों का प्रयोग करना पड़ा है। जैसे:-कमलेन-कमलेण अर्थात् कमल से। गिरिणा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-२३ में की गई है। ग्रामण्या संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप गामणिणा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; ३-४३ से मूल शब्द 'ग्रामणी' में स्थित दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर प्राकृत में हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति और ३-२४ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप 'आ' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गामणिणा रूप सिद्ध हो जाता है। खलप्वा संस्कृत तृतीयान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत-रूप खलपुणा होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-४३ से मूल शब्द 'खलपू' में स्थित दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर प्राकृत में हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति होकर ३-२४ से तृतीया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy