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26 : प्राकृत व्याकरण विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप 'आ' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर खलपुणा रूप सिद्ध हो जाता है।
तरुणा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-२३ में की गई है।
दध्ना संस्कृत तृतीयान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप दहिणा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८० से मूल शब्द 'दधि में स्थित 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२४ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप 'आ' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर दहिणा रूप सिद्ध हो जाता है।
मधुना संस्कृत तृतीयान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप महुणा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२४ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप 'ना' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर महुणा रूप सिद्ध हो जाता है। गिरी रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१९ में की गई है। तरू रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१९ में की गई है। दहिं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१९ में की गई है। महुरूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१९ में की गई है।
बुद्धया संस्कृत तृतीयान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप बुद्धीअ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२९ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप 'आ' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति करते हुए 'अ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बुद्धीअ रूप सिद्ध हो जाता है।
धेन्वा संस्कृत तृतीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप घेणूअ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से मूल रूप 'धेनु' में स्थित 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-२९ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप 'आ' के स्थान पर प्राकृत में अन्त हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति करते हुए 'अ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर धेणूअ रूप सिद्ध हो जाता है।
कयं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२६ में की गई है।
कमलेन संस्कृत तृतीयान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप कमलेण होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति ओर ३-१४ से प्राप्त 'ण' के पूर्व में स्थित शब्दान्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' के प्राप्ति होकर कमलेण रूप सिद्ध हो जाता है। ॥३-२४॥
क्लीबे स्वरान्म् सेः ॥३-२५।। क्लीबे वर्तमानात् स्वरान्तान्नाम्नः सेः स्थाने म् भवति। वणं । पेम्मा दहि। महुं। दहि महु इति तु सिद्धापेक्षया। केचिदनुनासिकमपीच्छन्ति । दहिँ। महुँ। क्लीब इति किम्। बालो। बाला। स्वरादिति इदुतोऽनिहत्यर्थन।
अर्थः- प्राकृत नपुसंकलिंग वाले स्वरान्त शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। जैसे:- वनम्=वणं। प्रेम-पेम्म। दधिम् दहिं। मधु-महुं।। __ संस्कृत इकारान्त उकारान्त नपुसंकलिंग वाले शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्त प्रत्यय 'म्' का लोप हो जाता है; तदनुसार प्राकृत में भी इकारान्त उकारान्त नपुंसकलिंग वाले शब्दों में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में सूत्र-संख्या ३-२५ से प्राप्त होने वाले प्रत्यय 'म्' का भी वैकल्पिक रूप से लोप हो जाया करता है। जैसे:-दधि-दहि और मधु-महु। इन रूपों की स्थिति संस्कृत में सिद्ध रूपों की अपेक्षा से जानना। कोई कोई आचार्य प्राकृत में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसंकलिंग में प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुनासिक की प्राप्ति भी स्वीकार करते हैं; तदनुसार उनके मत से 'दधि' का प्राकृत प्रथमान्त एकवचनान्त रूप 'दहिँ भी होता है। इसी प्रकार से 'मधु' का 'महुँ जानना।
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