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156 : प्राकृत व्याकरण वसामि ही होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से मूल प्राकृत हलन्त धातु 'वस्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५४ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति और ३-१४१ से प्राप्त धातु 'वसा' में वर्तमानकालीन तृतीया पुरुष के एकवचन में 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वसामि रूप सिद्ध हो जाता है।
नगरम् संस्कृत के द्वितीया विभक्ति का एकवचनान्त नपुंसकलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप नयरे (प्रदान किया गया) है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'ग्' का लोप' १-१८९ से लोप हुए 'ग' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-१३५ से द्वितीया के स्थान पर प्राकृत में सप्तमी विभक्ति के प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति और ३-११ से प्राप्त प्राकृत शब्द 'नयर' में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङि-इ' के स्थान पर प्राकृत में 'डे-ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर नयरे रूप सिद्ध हो जाता है।
'न' अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६ में की गई है। 'जामि' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-२०४ में की गई है।
मया संस्कृत की तृतीया विभक्ति का एकवचनान्त अस्मद् सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप मइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१३५ से तृतीया के स्थान पर प्राकृत में सप्तमी विभक्ति के प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; तदनुसार संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अस्मद् में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ङि-इ' की प्राप्ति होने पर ३-११५ से 'अस्मद्-इ' के स्थान पर 'मइ' की आदेश प्राप्ति होकर प्राकृत रूप 'मइ' सिद्ध हो जाता है।
वेपित्रा संस्कृत में तृतीया विभक्ति के एकवचनान्त स्त्रीलिंगात्मक विशेषण का रूप है। इसका प्राकृत रूप वेविरीए होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से मूल संस्कृत शब्द वेपितृ में स्थित 'प' के स्थान पर 'प्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१४२ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'रि' की प्राप्ति; ३-३२ और २-४ से प्राप्त रूप वेविर में स्त्रीलिंगात्मक प्रत्यय 'डी-ई की प्राप्ति; १-५ से प्राप्त रूप 'वेविरि+ई में संधि होकर 'वेविरी' की प्राप्ति; ३-१३५ से तृतीया विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में सप्तमी विभक्ति के प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; तदनुसार ३-२९ से प्राप्त स्त्रीलिंगात्मक विशेषण रूप वेविरी में सप्तमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङिइ' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत विशेषणात्मक स्त्रीलिंग रूप वेविरीए सिद्ध हो जाता है।
मृदितानि संस्कृत प्रथमा विभक्ति का बहुवचनान्त विशेषणात्मक नपुंसकलिंग का रूप है। इसका प्राकृत रूप मलिआई होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१२६ से मल संस्कृत धात 'मद' के स्थान पर प्राकत में 'मल' रूप की आदेश प्राप्ति: ४-४४८ से संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी विशेषण-निर्माण-अर्थ में 'मल्' धातु में 'इत' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त रूप 'मलित' में स्थित 'त्' व्यंजन का लोप; और ३-२६ से प्राप्त रूप मलिअ' में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में नपुंसकलिंग में अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' को प्राप्ति पूर्वक 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मलिआई रूप सिद्ध हो जाता है।
त्रिभिः संस्कृत तृतीया विभक्ति का बहुवचनान्त संख्यात्मक विशेषण का रूप है। इसका प्राकृत रूप तिस है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोपः ३-१३१ से तृतीया विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में सप्तमी विभक्ति के प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; तदनुसार ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तिसु विशेषणात्मक रूप सिद्ध हो जाता है। __ तैः संस्कृत तृतीया विभक्ति का बहुवचनान्त तद् सर्वनाम का पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप तेसु है। इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से मूल संस्कृत सर्वनाम शब्द 'तद्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यंजन 'द्' का लोप; ३-१३५ से तृतीया विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति; ३-१५ से प्राकृत में प्राप्त सर्वनाम
शब्द 'त' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर सप्तमी विभक्ति के बहुवचन-बोधक प्रत्यय 'सु' का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्ति और ४-४४८ से प्राप्त रूप 'ते' में सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत सर्वनाम-रूप तेसु हो जाता है।
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