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________________ 142 : प्राकृत व्याकरण स्वर 'इ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति; तत्पश्चात् ३-४ से संस्कृत प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्रत्यय जस और शस का प्राकृत में लोप होकर दोनों विभक्तियों के बहवचन में प्राकत रूप गिरी सिद्ध हो जाता है। गुरवः और गुरू संस्कृत में क्रम से प्रथमा विभक्ति और द्वितीया विभक्ति के बहुवचनीय पुल्लिंग रूप हैं। इन दोनों का प्राकृत रूप गुरू होता है। इस में सूत्र-संख्या ३-१२ और ३-१८ से मूल प्राकृत रूप गुरू में स्थित अन्त्य हृस्व स्वर 'उ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति; तत्पश्चात् ३-४ से संस्कृत प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में प्रत्यय जस् और शस् का प्राकृत में लोप होकर दोनों विभक्तियों के बहुवचन में प्राकृत रूप गुरू सिद्ध हो जाता है। 'सही' प्रथमा द्वितीया विभक्ति के बहुचनान्त रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-२७ में की गई है। 'वहू' प्रथमा द्वितीया विभक्ति के बहुवचनान्त रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-२७ में की गई है। 'रेहन्ति' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-२२ में की गई है। 'पेच्छ' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है। 'वा' अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६७ में की गई है। "गिरि रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है। गुरुम् संस्कृत द्वितीया विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिग रूप है। इसका प्राकृत रूप गुरुं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-५ से संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'अम्' में स्थित 'अ' का लोप होकर प्राकृत में म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप गुरुं सिद्ध हो जाता है। सखीम् संस्कृत द्वितीया विभक्ति का एकवचनान्त स्त्रीलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप सहि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; ३-३६ से प्राप्त रूप 'सही' में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप सहि सिद्ध हो जाता है। 'वहु रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-३६ में की गई है। ग्रामण्यम् संस्कृत द्वितीया विभक्ति का एकवचनान्त विशेषणात्मक पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप गामणिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से मूल संस्कृत रूप ग्रामणी में स्थित 'र' व्यञ्जन का लोप; ३-४३ से प्राप्त रूप गामणी में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर ई के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; ३-५ द्वितीया विभक्ति के एकवचन में प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप गामणिं सिद्ध हो जाता है। ___ खलप्वम् संस्कृत द्वितीया विभक्ति का एकवचनान्त विशेषणात्मक पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप खलपुं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-४३ से मूल रूप खलपू में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर 'ऊ के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप 'खलपुं सिद्ध हो जाता है। 'पेच्छ' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२३ में की गई है। हाहा संस्कृत तृतीया विभक्ति का एकवचनान्त पुल्लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप हाहाण होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-६ से तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा आ' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप हाहाण सिद्ध हो जाता है। 'कयं' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२६ में की गई है। मालानाम् संस्कृत षष्ठी विभक्ति का बहुवचनान्त स्रलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप मालाण होता है। इसमें सूत्र-संख्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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