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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 247 अर्थः- 'एकत्र करना, इकट्ठा करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'पुळ्' के स्थान पर प्राकृत-भाष में विकल्प से दो (धातु) रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। (१) आरोल और (२) वमाल। (३) विकल्प पक्ष होने से 'पुञ्ज' की भी प्राप्ति होगी। उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:- पुंजयति=(१) आरोलइ, (२) वमालइ और (३) पुंजइ-वह एकत्र करता है, वह इकट्ठा करती है ।।४-१०२॥ लस्जे र्जीहः ॥४-१०३।। लज्जते र्जीह इत्यादेशो वा भवति।। जीहइ। लज्जइ।। अर्थः- 'लज्जा' करना, शरमाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'लस्ज्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'जीह' (धातु) रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'लज्ज' की भी प्राप्ति होगी। जैसे- लज्जति–जीहइ अथवा लज्जइ-वह लज्जा करती है, वह शरमाती है ।। ४-१०३।। तिजेरोसुक्कः ॥४-१०४॥ तिजेरोसुक्क इत्यादेशो वा भवति ।। ओसुक्कइ। तेअण।। अर्थः- 'तीक्ष्ण करना, तेज करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'तिज्' के स्थान पर प्राकृत-भाष में विकल्प से 'ओसुक्क' (धातु) रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'तेअ' की भी प्राप्ति होगी। जैसे:- तेजयति (अथवा तिजति)=ओसुक्कइ, तेअइ-वह तीक्ष्ण करती है, वह तेज करता है। तेअधातु से संज्ञा-रूप 'तेअणं' की प्राप्ति होती है। नपुंसक लिंगवाले संज्ञा शब्द 'तेअण' का अर्थ 'तेज करना, पैनाना, उत्तेजन' ऐसा होता है ।। ४-१०४।। मृजेरुग्घुस-लुञ्छ-पुंछ-पुंस-फुस-पुस-लुह-हुल-रोसाणाः।।४-१०५।। मृजेरेते नवादेशा वा भवन्ति।। उग्घुसइ। लुञ्छइ। पुच्छइ। पुंसइ। फुसइ। लुहइ। हुलइ। रोसाणइ। पक्षे मज्जइ।। अर्थः- 'मार्जन करना, शुद्ध करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'मृज्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से नव (धातु-) रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। (१) उग्घुस, (२) लुञ्छ, (३) पुञ्छ, (४) पुंस, (५) फुस, (६) पुस, (७) लुह, (८) हुल, (९) रोसाण । वैकल्पिक पक्ष होने से 'मज्ज भी होगा। उदाहरण क्रम से इस प्रकार है:- माटि=(१) उग्घसई. (२) लछड (३) पुञ्छइ, (४) पुंसइ, (५) फुसइ, (६) पुसइ, (७) लुहइ, (८) हुलइ, (९) रोसाणइ पक्षे मज्जइ-वह मार्जन करता है, वह शुद्ध करता है ।। ४-१०५।। भजेर्वमय-मुसुमूर-मूर-सूर-सूड-विर-पविरञ्ज करञ्ज-नीरजाः ॥४-१०६॥ __ भजेरेते नवादेशा वा भवन्ति ।। वेमयइ। मुसुमूरइ। मूरइ। सूरइ, सूडइ। विरइ। पविरञ्जइ। करजइ। नीरजइ। भजइ॥ __ अर्थः- ‘भाँगना-तोड़ना' अर्थक संस्कृत-धातु 'भंज्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से नव धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। (१) वेमय, (२) मुसुमूर, (३) मूर, (४) सूर, (५) सूड, (६) विर, (७) पविरंज, (८) करंज और (९) नीरंज। वैकल्पिक पक्ष होने से 'भंज्' भी होगा। उदाहरण क्रम से यों हैं:- भनक्ति-(१) वेमयइ, (२) मुसुमूरइ, (३) मूरइ, (४) सूरइ, (५) सूडइ, (६) विरइ, (७) पविरञ्जइ (८) करञ्जइ (९) नीरञ्जइ, और (१०) भञ्जइ-वह भाँगता है अथवा वह तोड़ता है।। ४-१०६।। अनुव्रजेः पडिअग्गः॥४-१०७॥ अनुव्रजेः पडिअग्ग इत्यादेशो वा भवति। पडिअग्गइ। अणुवञ्चइ।। अर्थः- 'अनुसरण करना, पीछे जाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'अनु+व्रज' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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