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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 235 अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय ‘ण्यन्त' सहित तथा उत् उपसर्ग सहित संस्कृत-धातु 'नम्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में वैकल्पिक रूप से चार धातुओं की आदेश प्राप्ति होती हैं। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) उत्थंघ, (२) उल्लाल (३) गुलुगुञ्छ और (४) उप्पेल। पक्षान्तर में 'उन्नाम' रूप की भी प्राप्ति होगी। उदाहरण इस प्रकार है :उन्नामयति-उत्थंघइ, उल्लालइ, गुलुगुञ्छइ, उप्पेलइ और उन्नामइ, वह ऊँचा उठाता है। वह उपर उठाता है।।४-३६।। प्रस्थापेः पट्रव-पेण्डवौ ।।४-३७।। प्रपूर्वस्य तिष्टतेय॑न्तस्य पटुव पेण्डव इत्यादेशौ वा भवतः ।। पटुवइ। पेण्डवइ। पट्टावा।। अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय ‘ण्यन्त' सहित तथा 'प्र' उपसर्ग सहित संस्कृत-'धातु प्रस्थाप' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'पट्रव और पेण्डव' रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जैसेः- प्रस्थापयति-पट्टवइ और पेण्डवइ-वह स्थापित करवाता है। पक्षान्तर में 'पट्ठावइ' रूप भी होता है ।।४-३७।। विज्ञपेर्वोक्कावुको ।।४-३८।। विपूर्वस्य जानतेय॑न्तस्य वोक्क अवुक्क इत्यादेशौ वा भवतः।। वोक्कइ। अवुक्कइ। विण्णवइ।। अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय 'ण्यन्त सहित तथा 'वि' उपसर्ग सहित विशेष ज्ञान कराने अर्थक अथवा विनय-विनति कराने अर्थक संस्कृत धातु 'विज्ञप' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'वोक्क' और 'अवुक्क' ऐसी दो धातुओं की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में विज्ञापय' का प्राकृत रूपान्तर 'विण्णव' भी बनेगा। उदाहरण इस प्रकार है:विज्ञापयति वोक्कइ, अवुक्कइ और विण्णवइ-वह विशेष ज्ञान करवाता है अथवा वह विनति करवाता है ।। ४-३८।। अर्परल्लिव-चच्चुप्प-पणामाः।।४-३९।। अर्पर्ण्यन्तस्य एते त्रय आदेशा वा भवन्ति।। अल्लिवइ। चच्चुप्पइ। पणामइ। पक्षे अप्पेइ।। अर्थः-प्रेरणार्थक प्रत्यय ‘ण्यन्त' सहित संस्कृत धातु 'अर्प' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से तीन धातु-रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि इस प्रकार से हैं:- (१) अल्लिव, (२) चच्चुप्प और (३) पणाम। पक्षान्तर में 'अप्प' रूप भी बनेगा। चारों के उदाहरण इस प्रकार है:- अर्पयतिअल्लिवइ, चच्चुप्पइ, पणामइ और अप्पेइ-वह अर्पण करवाता है ।।४-३९।। यापेर्जवः।।४-४०॥ यापेर्ण्यन्तस्य जव इत्यादेशो वा भवति।। जवइ। जावे ।। अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय ‘ण्यन्त' संस्कृत-धातु 'याप्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'जव' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में 'जाव' रूप की भी प्राप्ति होगी ही। जैसे:- यापयति-जवइ अथवा जावेइ-वह गमन करवाता है; वह व्यतीत करवाता है।। ४-४०।। __प्लावेरोम्वाल-पव्वालौ ।। ४-४१॥ प्लवते य॑न्तस्य एतावादेशौ वा भवतः।। ओम्वालइ। पव्वालइ। पावे।।। अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय ण्यन्त' सहित 'भिगोने-तर बतर करने' अर्थक संस्कृत-धातु 'प्लाव' के स्थान पर प्राकृत भाषा में ओम्वाल और पव्वाल ऐसी दो धातुओं की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है। ___ पक्षान्तर में प्लावय के स्थान पर 'पाव' रूप की भी प्राप्ति होगी। जैसे :- प्लावयति-ओम्वालइ, पव्वालइ और पावेइ-वह भिगोवाता है, वह तर-बतर करवाता है। वह भिंजवाता है ।।४-४१।। विकोशेः पक्खोडः ॥४-४२॥ विकोशयते म धातोर्ण्यन्तस्य पक्खोड इत्यादेशो वा भवति॥ पक्खोडइ। विकोसइ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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