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________________ 234 : प्राकृत व्याकरण भ्रमेस्तालिअण्ट - तमाडौ ।।४-३०।। भ्रमयतेर्ण्यन्तस्य तालिअण्ट तमाड इत्यादेशौ वा भवतः ।। तालिअण्टइ। तमाडइ । भामेइ । भमाडे । भमावेइ || अर्थः- प्रेरणार्थक 'ण्यन्त' प्रत्यय सहित संस्कृत धातु 'भ्रम्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'तालिअण्ट' और 'तमाड' ऐसे दो धातु रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- भ्रमयति = तालिअण्टइ और तमाडइ = वह घुमाता है। 'भामेइ, भमाडेइ, भमावेइ' रूप भी होते हैं ॥। ४-३०।। नशेर्विउड - नासव - हारव - विप्पगाल - पलावाः । । ४ - ३१॥ नशेर्ण्यन्तस्य एते पञ्चादेशा वा भवन्ति । विउडइ । नासवइ । हारवइ । विप्पगालइ । पलावइ । पक्षे । नासइ || अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय 'ण्यन्त' सहित संस्कृत धातु 'नश्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से पांच धातु रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। वे क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) विउड, (२) नासव, (३) हारव, (४) विप्पगाल और (५) पलाव | इनके उदाहरण इस प्रकार हैं :- नाशयति-विउडइ, नासवइ, हारवइ, विप्पगालइ और पलावइ = वह नाश कराता है। पक्षान्तर में नासइ भी होगा और इसका अर्थ भी वह नाश कराता है, होगा ।।४-३१।। दृरोदव - दंस - दक्खवाः।।४-३२।। दृर्ण्यन्तस्य एते त्रय आदेशा भवन्ति । । दावइ । दंसइ । दक्खवइ । दरिसइ || अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय 'ण्यन्त' सहित संस्कृत धातु दृश के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से तीन आदेश होते हैं; वे क्रम से यों हैं:- (१) दाव, (२) दंस और (३) दक्खव । इनके उदाहरण इस प्रकार हैं:- दर्शयति=दावइ, दंसइ और दक्खवइ=वह बतलाता है अथवा वह प्रदर्शित कराता हैं पक्षान्तर में दरिसइ रूप होता है ।।४-३२ || उद्घटेरुग्ग: ।।४-३३॥ उत्पूर्वस्य घटेर्ण्यन्तस्य उग्ग इत्यादेशो वा भवति ।। उग्गइ। उग्घाडइ।। अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय ' ण्यन्त' सहित तथा उत उपसर्ग सहित संस्कृत धातु 'घट्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से ‘उग्ग' ऐसे धातु रूप की आदेश प्राप्ति होती हैं। जैसे:- उद्घाटयति-उग्गइ = वह प्रारम्भ कराता है अथवा वह खुला कराता है। पक्षान्तरे उग्घाडइ रूप भी होता है ।।४-३३ ।। स्पृहः सिहः ।।४-३४॥ स्पृह ण्यन्तस्य सिह इत्यादेशो भवति ।। सिहइ । अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय 'ण्यन्त' सहित संस्कृत - धातु 'स्पृह' के स्थान पर प्राकृत भाषा में नित्य रूप से 'सिंह' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- स्पृहयति - सिहइ = वह चाहना-इच्छा कराता है ।।४-३४।। संभावेरासंघः ।।४-३५।। संभावयतेरासङ्घ इत्यादेशो व भवति ।। आसङ्घइ । संभावइ || अर्थः-संस्कृत-धातु संभावय के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'आसङ्घ' ऐसे धातु रूप की आदेश प्राप्ति होती हैं। पक्षान्तर में संभावय के स्थान के पर 'संभाव' रूप भी होगा । जैसे- संभावयति आसङ्घइ, पक्षान्तर में संभावइ-वह संभावना कराता है ।। ४-३५ ।। उन्नमेरूत्थंघोल्लाल-गुलु गुञ्छोप्पेलाः ।। ४-३६।। उत्पूर्वस्य नमेर्ण्यन्तस्य एते चत्वार आदेशा वा भवन्ति । उत्थङ्घइ । उल्लालइ । गुलुगुञ्छइ । उप्पेलइ। उन्नामइ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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