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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 63 संस्कृत-शब्द भ्रातृ में स्थित 'र' का लोप; १–१७७ से 'त्' का लोप; ३-४७ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'अर' आदेश की प्राप्ति; १-१८० से आदेश प्राप्त 'अर' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-१२ से प्राप्तांग 'भायर' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर आगे प्रथमा विभक्ति के बहुवचन बोधक प्रत्यय की प्राप्ति होने से 'आ' की प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' का प्राकृत में लोप होकर भायरा रूप सिद्ध हो जाता है।
भ्रातरम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप भायरं होता है। इसमें 'भायर' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त साधनिका के समान; तत्पश्चात् शेष साधनिका सूत्र-संख्या ३-५ तथा १-२३ से 'जामायरं के समान ही होकर प्राकृत-रूप भायरं सिद्ध हो जाता है।
भ्रातृन् संस्कृत द्वितीया बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप भायरे होता है। इसमें भायर' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त साधनिका के समान; तत्पश्चात् शेष साधनिका की प्राप्ति सूत्र-संख्या ३-१४ और ३-४ से 'जामायरे' के समान ही होकर प्राकृत रूप भायरे सिद्ध हो जाता है।
भ्रात्रा संस्कृत तृतीयान्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप भायरेण होता है। इसमें भायर' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त साघनिका के समान; तत्पश्चात् शेष साधनिका की प्राप्ति सूत्र-संख्या ३-१४ तथा ३-६ से 'जामायरेण' के समान ही होकर प्राकृत रूप भायरेण सिद्ध हो जाता है। . भ्रातृभिः तृतीयान्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप भायरेहिं होता है। इसमें 'भायर' अंग की प्राप्ति उपर्युक्त साधनिका के समान; तत्पश्चात् शेष साधनिका की प्राप्ति सूत्र-संख्या ३-१५ तथा ३-७ से उपर्युक्त 'पिअरेहिं अथवा 'जामायरेहिं के समान ही होकर प्राकृत रूप 'भायरेहि सिद्ध हो जाता है। ३-४७।।
आ सौ न वा ।। ३-४८।। ऋदन्तस्य सौ परे आकारो वा भवति। पिआ। जामाया। भाया। कत्ता। पक्षे। पिअरो। जामायरो। भायरो। कत्तारो।
अर्थ :- संस्कृत ऋकारान्त शब्दों के प्राकृत रूपान्तर में प्रथमा विभक्तिबोधक प्रत्यय 'सि' परे रहने पर शब्दान्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'आ' की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:- पिता-पिआ अथवा पिअरो; जामाता-जामाया अथवा जामायरो; भता=भाया अथवा भायरो और कर्ता=कत्ता अथवा कत्तारो; इत्यादि। "पिआ' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-४४ में की गई है।
जामाता संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप जामाया और जामायरा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'जामातृ' में स्थित 'त' का लोप, ३-४८ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'आ' आदेश प्राप्ति ; १-१८० से आदेश प्राप्त 'आ' के स्थान पर 'या' की प्राप्तिः ४-४४८ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि'='स्' की प्राकृत में भी प्राप्ति और १-११ से प्राप्त प्रत्यय 'स्' का प्राकृत में लोप होकर प्रथम रूप जामाया सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'जामायरो' की सिद्धि का सूत्र-संख्या ३-४७ में की गई है।
भ्राता संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है इसके प्राकृत रूप भाया और भायरो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-सख्या २-७९ से मूल संस्कृत शब्द 'भ्रातृ' में स्थित 'र' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-४८ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; १-१८० से प्राप्त 'आ' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति और शेष साघनिका की प्राप्ति सूत्र-संख्या ४-४४८ तथा १-११ से उपर्युक्त 'जमाया' के समान ही होकर प्रथम रूप भाया' सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप- (भ्राता) भायरो में सूत्र-संख्या २-७९ से मूल संस्कृत-शब्द 'भ्रातृ' से स्थित 'र' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-४७ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' स्वर के स्थान पर 'अर्' आदेश की प्राप्ति; १-१८०
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