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________________ 208 : प्राकृत व्याकरण श्रोष्यति संस्कृत के भविष्यत्काल प्रथमपुरुष के एकवचन का सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप सोच्छिइ और सोच्छिहिइ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१७१ से मूल संस्कृत धातु 'श्रु' के स्थान पर प्राकृत में भविष्यत्काल के प्रयोगार्थ सोच्छ' की आदेश प्राप्ति; ३-१५७ से प्राप्तांग 'सोच्छ' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे भविष्यत्काल बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण से 'इ' की प्राप्ति; ३-१६६ से द्वितीय रूप में प्राप्तांग 'सोच्छि' में भविष्यत्काल के बोधनार्थ हि' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-१७२ से प्रथम रूप में भविष्यत्काल बोधक प्राप्त प्रत्यय 'हि' का वैकल्पिक रूप से और ३-१२९ से भविष्यत्काल के अर्थ में क्रम से प्राप्तांग 'सोच्छि और सोच्छिहि' में प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में प्रत्यय 'इ' की प्राप्ति होकर सोच्छिड और सोच्छिहिइ रूप सिद्ध हो जाते हैं। श्रोष्यन्ति संस्कृत के भविष्यत्काल प्रथमपुरुष के बहुवचन का सकर्मक क्रियापद का रूप है इसके प्राकृत रूप सोच्छिन्ति और सोच्छिहिन्ति होते हैं इनमें सोच्छि और साच्छिहि अंग रूपों की प्राप्ति उपर्युक्त एकवचनात्मक रूपों के समान ही जानना चाहिये; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१४२ से भविष्यत्काल के अर्थ में क्रम से प्राप्तांग ‘सोच्छ ओर सोच्छिहि' में प्रथमपुरुष के बहुवचन के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'न्ति' की प्राप्ति होकर सोच्छिन्ति और सोच्छिहिन्ति रूप सिद्ध हो जाते हैं। श्रोष्यसि संस्कृत के भविष्यत्काल द्वितीय पुरुष के एकवचन का सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप सोच्छिसि और सोच्छिहिसि होते हैं। इनमें 'सोच्छि और सोच्छिहि' अंग रूपों की प्राप्ति प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में वर्णित उपर्युक्त सूत्र-संख्या ३-१७१; ३-१५७;३-१६६ और ३-१७२ से जानना चाहिये, तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१४० से भविष्यत्काल के अर्थ में क्रम से प्राप्तांग 'सोच्छि ओर सोच्छिहि' में द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप सोच्छिसि और सोच्छिहिसि सिद्ध हो जाते हैं। ___ श्रोष्यथ संस्कृत के भविष्यत्काल अर्थक द्वितीय पुरुष के बहुवचन का सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत-रूप सोच्छित्था सोच्छिह, सोच्छिहित्था, सोच्छिहिह होते हैं। इनमें 'सोच्छि और सोच्छिहि' मूल अंग-रूपों की प्राप्ति प्रथमपुरुष के एकवचन के अर्थ में वर्णित उपर्युक्त सूत्र-संख्या ३-१७१;३-१५७,३-१६६ और ३-१७२ से जानना चाहिये; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१४३ से भविष्यत्काल के अर्थ में क्रम से प्राप्तांग 'सोच्छि और सोच्छिहि' में द्वितीय पुरुष के बहुवचन के अर्थ में क्रम से प्राप्त प्रत्यय 'इत्था और ह' की चारों अंगों में प्राप्ति होकर क्रम से चारों रूप-'सोच्छित्था; सोच्छिह, सोच्छिहित्था और सोच्छिहिह' सिद्ध हो जाते हैं। यह विशेषता और ध्यान में रहे कि सूत्र-संख्या १-१० से प्राप्त प्रत्यय 'इत्था' के पूर्वस्थ स्वर 'इ' का लोप हो जाता है। तत्पश्चात् रूप निर्माण होता है। श्रोष्यामि संस्कृत के भविष्यत्काल तृतीय पुरुष के एकवचन का सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत-रूप सोच्छिमि, सोच्छिहिमि, सोच्छिस्सामि, सोच्छिहामि, सोच्छिस्सं ओर सोच्छं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१७१ से मूल संस्कृत धातु 'श्रु' के स्थान पर प्राकृत में भविष्यत्काल के प्रयोगर्थक 'सोच्छ' की आदेश प्राप्ति; ३-१५७ से प्रथम रूप से लगाकर पाँचवें रूप तक प्राप्त प्राकृत-शब्द 'सोच्छ' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे भविष्यत्कालवाचक प्रत्यय का सद्भाव होने के कारण से 'इ' की प्राप्ति; ३-१६६ और ३-१६७ से द्वितीय रूप, तृतीय रूप और चतुर्थ रूप में पूर्वोक्त रीति से प्राप्तांग 'सोच्छि' में भविष्यत्कालवाचक प्रत्यय 'हि' स्सा और हा' की क्रम से प्राप्ति; ३-१७२ से प्रथम रूप में भविष्यत्कालवाचक प्रत्यय 'हि' का लोप और ३-१४१ से भविष्यत्काल के अर्थ में क्रम से प्राप्त प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ रूपांग-'सोच्छि, सोच्छिहि, सोच्छिस्सा और सोच्छिहा' में तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'मि' की प्राप्ति होकर क्रम से प्रथम चार रूप 'सोच्छिमि सोच्छिहीमि, सोच्छिस्सामि और सोच्छिहामि' सिद्ध हो जाते हैं। पंचम रूप सोच्छिस्सं में मूल प्राकृत अंग 'सोच्छि' की प्राप्ति उपर्युक्त चार रूपों में वर्णित विधि-विधानानुसार जानना चाहिये; तत्पश्चात् प्राप्तांग 'सोच्छि' में सूत्र-संख्या ३-१६९ से भविष्यत्काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन के भाव में केवल 'स्सं प्रत्यय की ही प्राप्ति होकर एवं शेष सभी एतदर्थक प्राप्त प्रत्ययों का अभाव होकर पंचम रूप-'सोच्छिस्सं' सिद्ध हो जाता है। छटे रूप 'सोच्छं' की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१७१ में की गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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