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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 179 हासितम् संस्कृत कृदन्त का रूप है। इसके प्राकृत रूप हासिअं और हसाविअं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप हासिअं में सत्र-संख्या ३-१५३ से मल प्राकत धात 'हस' में स्थित आदि स्वर 'अ' के स्थान पर आगे भूत-कृदन्तीय प्रत्यय का सद्भाव होने से ३-१५२ द्वारा प्रेरणार्थक-भाव-प्रदर्शक-प्रत्यय का लोप हो जाने से -आ की प्राप्ति; ३-१५६ से प्राप्तांग 'हास' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे भूत-कृदन्त-वाचक प्रत्यय 'त' का सद्भाव होने से 'इ' की प्राप्ति; ४-४४८ से प्राप्तांग 'हासि' में भूत-कृदन्त-वाचक संस्कृत प्रत्यय 'त' के समान ही प्राकृत में भी 'त' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त प्रत्यय 'त' में से हलन्त व्यंजन 'त्' का लोप; ३-२५ से प्राप्तांग 'हासिअ' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्ण वर्ण पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर भूत कृदन्तीय प्रेरणार्थक भाव सूचक प्रथमान्त एकवचनीय प्राकृत पद हासिअं सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(हासितम्=) हसाविअं में सूत्र-संख्या ३-१५२ से मूल प्राकृत धातु 'हस' में प्रेरणार्थक भाव प्रदर्शक प्रत्यय 'आवि' की प्राप्ति; प्राप्तांग 'हसावि' में शेष-साधनिका प्रथम रूप के समान है। सूत्र-संख्या ४-४४८:१-१७७,३-२५ और १-२३ द्वारा सिद्ध होकर द्वितीय रूप हसाविअं भी सिद्ध हो जाता है।
क्षामितम् संस्कृत का भूत कृदन्तीय रूप है। इसके प्राकृत रूप खामिअं और खमाविअं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-३ से मूल संस्कृत-धातु 'क्षम' में स्थित 'क्ष' व्यंजन के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; ३-१५३ से प्राप्तांग 'खम' में स्थित आदि स्वर 'अ' के स्थान पर आगे भूत कृदन्तीय प्रत्यय का सद्भाव होने से ३-१५२ द्वारा प्रेरणार्थक-भाव-प्रदर्शक प्रत्यय का लोप हो जाने से 'आ' की प्राप्ति; ४-२३९ से प्राप्तांग हलन्त 'खाम्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यंजन 'म्' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति, ३-१५६ से प्राप्तांग 'खाम' में उक्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर आगे भूतकृदन्तवाचक प्रत्यय 'त' का सद्भाव होने से 'इ' की प्राप्ति; ४-४४८ से प्राप्तांग 'खामि' में भूत कृदन्तवाचक संस्कृत प्रत्यय 'त' के समान ही प्राकृत में भी 'त' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त प्रत्यय 'त' में से हलन्त व्यंजन 'त्' का लोप; ३-२५ से प्राप्तांग 'खामिअ' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्ववर्ण पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर भूत कृदन्तीय प्रेरणार्थक भाव सूचक प्रथमान्त एकवचनीय प्राकृत प्रथम पद खामिअं सिद्ध हो जाता है। ___ खमाविअं में मूल प्राकृत अंग 'खम्' की प्राप्ति उपर्युक्त प्रथम रूप के समान और ३-१५२ से मूल-प्राकृत धातु 'खम्' में प्रेरणार्थक-भाव-प्रदर्शक प्रत्यय 'आवि' की प्राप्ति; इस प्रकार प्रेरणार्थक-रूप से प्राप्तांग 'खमावि' में शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही सूत्र-संख्या ४-४४८; १-१७७; ३-२५ और १-२३ द्वारा होकर द्वितीय रूप खमाविअं भी सिद्ध हो जाता है। ___ कार्यते संस्कृत प्रेरणार्थक रूप है। इसके प्राकृत रूप कारीअइ, करावीअइ, कारिज्जइ और कराविज्जइ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-१५३ से मूल-प्राकृत धातु 'कर' में स्थित आदि स्वर 'अ' के स्थान पर आगे प्रेरणार्थक-भाव-सूचक प्रत्यय के सद्भाव का ३-१५२ द्वारा लोप कर देने से 'आ' की प्राप्ति; १-१० से प्राप्तांग 'कार' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' का आगे प्राप्त कर्मणिवाचक-प्रत्यय 'ईअ में स्थित दीर्घ स्वर 'ई' का सद्भाव होने से लोप; ३-१६० से प्राप्तांग हलन्त 'कार' में कर्मणि-प्रयोग वाचक प्रत्यय 'ईअ की प्राप्ति; १-५ से हलन्त 'कार' के साथ में उक्त प्रत्यय 'ईअ की संधि हो जाने से कारीअ' अंग की प्राप्ति और ३-१३९ से प्राप्तांग 'कारीअ' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप कारीअइ सिद्ध हो जाता है। ___करावीअइ में सूत्र-संख्या ३-१५२ से मूल प्राकृत धातु 'कर' में प्रेरणार्थक प्रत्यय 'आवि' की प्राप्ति; १-५ से 'कर' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ के साथ में आगे रहे हुए 'आवि' प्रत्यय के आदि स्वर 'आ' की संधि; ३-१६० से प्राप्तांग 'करावि' में कर्मणि प्रयोग वाचक प्रत्यय 'इअ की प्राप्ति; १-५ से 'करावि' में स्थित अन्त्य हस्व 'इ' के साथ में आगे प्राप्त प्रत्यय 'ईअ' में स्थित आदि दीर्घ स्वर 'ई' की संधि होकर दोनों स्वरों के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति और ३-१३९ से प्राप्तांग 'करावीअ में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप करावीअइ सिद्ध हो जाता है।
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