________________
362 : प्राकृत व्याकरण
प्रायसः प्राउ-प्राइव-प्राइम्व-पग्गिम्वाः॥४-४१४॥ अपभ्रंशे प्रायस् इत्येतस्य प्राउ, प्राइव, प्राइम्व, पग्गिम्व इत्येते चत्वार आदेशा भवन्ति।। अन्ने ते दीहर लोअण, अन्नु तं भुअ-जुअलु। अन्नु सुघण-थण-हारू, तं अन्नु जि मुह-कमलु॥ अन्नु जि केस-कलावु सु अन्नु जि प्राउ विहि।। जेण णि अम्बिणि घडिअ, स गुण-लायण्ण-णिहि।।१।। प्राइव मुणिहं वि भन्तडी, तें मणिअडा गणन्ति।। अखइ निरामइ परमपइ अज्ज वि लउ न लहन्ति।। २।। अंसु-जलें प्राइम्व गोरि अहे सहि ! उव्वत्ता नयण-सर।। तें सम्मुह संपेसिआ देन्ति, तिरिच्छी घत्त पद।। ३।। एसी पिउ रूसेसु हउं रूटी मई अणुणे।।। पग्गिम्ब एइ मणोरहई दुक्करू दइउ करेइ।।४।।
अर्थः-संस्कृत भाषा में पाये जाने वाले अव्यय रूप 'प्रायस्' के स्थान पर अपभ्रंश भाषा में चार रूपों की आदेश प्राप्ति होती है; जो कि क्रम से इस प्रकार है:-(१) प्राउ, (२) प्राइव, (३) प्राइम्व और (४) पग्गिम्व। आदेश-प्राप्त चारों ही रूपों का अर्थ है:-'बहुत करके'। इन एकार्थक चारों ही रूपों का प्रयोग उपरोक्त गाथाओं में किया गया है; जिनका अनुवाद क्रम से इस प्रकार है:संस्कृत : अन्ये ते दीर्घ लोचने, अन्यद् तद् भुज युगलम्।।
अन्यः सघन स्तन भारः, तदन्यदेव मुख कमलम्।। अन्य एव केश कलाप; सः अन्य एवं प्रायो विधिः॥१॥
येन नितम्बिनी घटिता, सा गुण लावण्य निधिः।।१।। हिन्दी:-(नायिका विशेष का एक कवि वर्णन करता है कि) :- उसकी दोनों बड़ी-बड़ी आँखें कुछ ही प्रकार की है-याने तुलना में अनिर्वचनीय है। उसकी दोनों भुजाएँ (भी) असाधारण है। उसका सघन और कठोर एवं उन्नत स्तन-भार है। उसके मुख-कमल की शोभा भी अद्वितीय है। उसके केशों के समूह की तुलना अन्य से नहीं की जा सकती है। वह विधाता ही (ब्रह्मा ही) प्रायः कोई दूसरा ही मालूम पड़ता है; जिसने कि ऐसो विशाल नितम्बों वाली तथा गुण एवं सौन्दर्य के भंडार रूप रमणी-रत्न का निर्माण किया है। इस छंद में 'प्रायः' के आदेश-प्राप्त रूप 'प्राउ' का उपयोग किया गया है।।१।। संस्कृत : प्रायो मुनीनामपि भ्रान्तिः ते मणीन् गणयन्ति।।
अक्षये निरामये परम पदे अद्यापि लयं न लभन्ते।। २॥ __ हिन्दी:-अक्सर करके-बहुत करके मुनियों में भी (ज्ञान-दर्शन चरित्र के प्रति) भ्रांति है विपरीतता है; (इस विपरीतता के कारण से माला फेरते हुए भी केवल) वे मणकों को ही गिनते हैं और इसी कारण से अभी तक 'अक्षय-शाश्वत्
और दुःख रहित-निरामय मोक्ष पद को नहीं प्राप्त कर सके है।। इस गाथा में 'प्रायः' की जगह पर 'प्राइव' रूप को स्थान दिया गया है।। २।। संस्कृत : अश्रु जलेन प्रायः गौर्याः सखि ! उद्वृत्ते नयन सरसी।।
ते सम्मुखे संप्रेषिते दत्तः तिर्यग् घातम परम्।। ३।। हिन्दी:-हे सखि ! उस गौरी (नायिका विशेष) के दोनों आँखों रूपी तालाब आँसु रूपी जल से प्रायः लबालब
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org