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________________ 134 : प्राकृत व्याकरण त्रिभ्यः संस्कृत पञ्चमी बहुचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसका प्राकृत रूप तीहिन्तो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-११८ से मूल संस्कृत शब्द 'त्रि' के स्थान पर प्राकृत में 'ती' अंग रूप की आदेश प्राप्ति और ३-९ से पञ्चमी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तांग 'ती' में संस्कृत प्रत्यय 'भ्यस्' के स्थान पर प्राकृत में हिन्तो प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर तीहिन्तो रूप सिद्ध हो जाता है। 'आगओ' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२०९ में की गई है। त्रयाणाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसका प्राकृत रूप तिण्हं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-११८ से मूल संस्कृत शब्द 'त्रि' के स्थान पर प्राकृत में 'ती' अंग रूप की आदेश प्राप्ति; ३-१२३ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तांग 'ती' में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में ‘ण्ह' प्रत्यय का आदेश और १-८४ से प्राप्त प्रत्यय ‘ण्ह संयुक्त व्यञ्जनात्मक होने से अंग रूप 'ती' में स्थित अन्त्य दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप 'तिण्ह सिद्ध हो जाता है। 'धणं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-५० में की गई है। त्रिषु संस्कृत सप्तमी बहुवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसका प्राकृत रूप तीसु होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-११८ से मूल संस्कृत शब्द 'त्रि' के स्थान पर प्राकृत में 'ती' अंग रूप की आदेश प्राप्ति और ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तांग 'ती' में संस्कृत प्रत्यय 'सुप्-सु' के समान ही प्राकृत में भी 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप तीसु सिद्ध हो जाता है। "ठिअं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१६ में की गई है।।३-११८।। द्वेर्दो वे।। ३-११९।। द्वि शब्दस्य तृतीयादो दो वे इत्यादेशो भवतः। दोहि वेहि कयं। दोहिन्तो वेहिन्तो आगओ दोण्हं वेण्हं धणं। दोसु वेसु ठिी अर्थः- संस्कृत संख्यावाचक शब्द “द्वि' अर्थात् 'दो' नित्य प्राकृत में (न कि संस्कृत में) बहुवचनात्मक है; इस 'द्वि' शब्द के एकवचन में रूपों का निर्माण नहीं होता है; क्योंकि यह 'द्वि' शब्द उस संख्या का वाचक है; जो कि नित्य ही 'एक से अधिक है। ततीया विभक्ति पंचमी विभक्ति. षष्ठी विभक्ति और सप्तमी विभक्ति के बहवचन में क्रम से प्रत्ययों की संप्राप्ति होने पर इस संस्कृत शब्द 'द्वि' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'दो' और 'वे' अंग रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। तत्पश्चात् प्राकृत इन दोनों प्राप्तांगों में याने 'दो' और 'वे' में क्रम से उक्त विभक्तियों के बहुवचन बोधक प्रत्ययों की संयोजना की जाती है। उदाहरण इस प्रकार हैं:- तृतीया विभक्ति बहुवचनः- द्वाभ्याम् कृतम्-दोहि अथवा वेहि कयं अर्थात् दो से किया गया है। पंचमी बहुवचनः- द्वाभ्याम् आगतः दोहिन्तो अथवा वेहिन्तो आगओ अर्थात् दो (के पास) से आया हुआ है। षष्ठी बहुवचनः- द्वयोः धनम् दोण्हं अथवा वेण्हं धणं अर्थात् दोनों का धन और सप्तमी बहुवचनः-द्वयोः स्थितम् दोसु अथवा वेसु ठिअं अर्थात् दोनों पर स्थित है। द्वाभ्याम् संस्कृत तृतीया द्विवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसके प्राकृत रूप 'दोहि' और 'वेहि होते हैं। इनमें सत्र-संख्या ३-११९ से मल संस्कत शब्द 'द्वि' के स्थान पर प्राकत में क्रम से 'दो' और 'वे' अंग रूपों की आदेश प्राप्तिः ३-१३० से संस्कत द्विवचनात्मक पद से प्राकत में बहवचनात्मक पद की (प प्राप्ति और ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तांग 'दो' और 'वे' में संस्कृत प्रत्यय 'भ्याम्' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप दोहि और वेहि सिद्ध हो जाते हैं।। कयं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२६ में का गई है। द्वाभ्याम् संस्कृत पञ्चमी द्विवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसके प्राकृत रूप 'दोहिन्तो' और 'वेहिन्तो' होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-११९ से मूल संस्कृत शब्द 'द्वि' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'दो' और अव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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