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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 133 रूपों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है एवं तत्पश्चात् सप्तमी बहुवचनार्थ में उन आदेश प्राप्त चारों अंग रूपों में 'सु' प्रत्यय की संयोजना होती है। उक्त विधानानुसार 'अस्मद् के प्राप्तव्य प्राकृत चार अंग रूप इस प्रकार हैं:- अस्माद्-अम्ह, मम, मह और मज्झ। इन अंग रूपों की प्रत्यय सहित स्थिति इस प्रकार है:- अस्मासु-अम्हेसु, ममेसु, महेसु और मज्झेसु अर्थात् हम सभी पर अथवा हमारे पर; हम सभी में अथवा हमारे में।
किन्ही-किन्हीं की मान्यता है कि सप्तमी बहुवचनार्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सु' की संप्राप्ति होने पर उक्त चारों प्राप्तांगों में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होती है। तदनुसार उक्त आदेश-प्राप्त चारों अंगों में 'सु' प्रत्यय प्राप्त होने पर इस प्रकार रूप-स्थिति बनती है- अम्हसु, ममसु, महसु और मज्झेसु। इनमें अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर प्राप्त 'ए' का अभाव प्रदर्शित किया गया है। कोई एक ऐसा भी मानता है कि संस्कृत शब्द 'अस्मद् के स्थान पर सर्वप्रथम आदेश-प्राप्तांग 'अम्ह' में 'सु' प्रत्यय की संप्राप्ति होने पर 'अम्ह' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति होती हैं इसके मत से 'अम्ह' में 'सु' प्रत्यय की संयोजना होने पर सप्तमी बहुवचनार्थ में 'अम्हासु रूप की भी संप्राप्ति होती है। इस प्रकार 'अस्मासु' के प्राकृत में उक्त नव रूप होते हैं।
'अस्मासु' संस्कृत सप्तमी बहुवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप 'अम्हेसु, ममेसु, महेसु, मज्झेसु, अम्हसु, ममसु, महसु, मज्झसु और अम्हासु' होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-११७ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन मे 'सुप्-सु' प्रत्यय की संयोजना होने पर संस्कृत मूल शब्द 'अस्मद्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से चार अम्ह, मम, मह और मज्झ' अंगरूपों की संप्राप्ति; तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-१५ से प्राप्तांगों के अंत में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर प्रथम चार रूपों में आगे सप्तमी बहुवचन बोधक प्रत्यय 'सु' का सद्भाव होने से 'ए' की प्राप्तिः; ३-११७ की वृत्ति से पांचवें रूप से प्रारम्भ करके आठवें रूप तक में उक्त अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर प्राप्त 'ए' का अभाव प्रदर्शित करके अन्त्य स्वर' 'अ यथापूर्व स्थित का ही सद्भाव, जबकि नवें रूप में ३-११७ की वृत्ति से प्राप्त प्रथमांग 'अम्ह' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति और सूत्र-संख्या ४-४४८ से उपर्युक्त रीति से प्राप्त नव ही अंगों में सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में 'सु' प्रत्यय की संप्राप्ति होकर क्रम से नव ही रूप 'अम्हेसु, ममेसु, महेसु, मज्झेसु, अम्हसु, ममसु, महसु, मज्झसु और अम्हासु सिद्ध हो जाते हैं।।३-११७॥
त्रेस्ती तृतीयादौ ।। ३-११८।। त्रेः स्थान ती इत्यादेशो भवति तृतीयादौ॥ तीहिं कयं। तीहिन्त आगओ। तिण्हं धणं। तीसु ठिी
अर्थ :-संस्कृत संख्यावाचक शब्द 'त्रि' अर्थात् 'तीन' नित्य बहुवचनात्मक है; इस 'त्रि' शब्द के एकवचन और द्विवचन में रूपों का निर्माण नहीं होता है। क्योंकि यह 'त्रि' शब्द 'सुप' संख्या का वाचक है; जो कि 'एक' और 'दो' से नित्य ही अधिक होते हैं। तृतीया विभक्ति, पञ्चमी विभक्ति, षष्ठी विभक्ति और सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में क्रम से प्रत्ययों की संप्राप्ति होने पर इस संस्कृत शब्द 'त्रि' के स्थान पर प्राकृत में 'ती' अंग रूप की आदेश प्राप्ति होती है; तत्पश्चात् प्राकृत प्राप्तांग 'ती' में उक्त विभक्तियों के बहुवचन बोधक प्रत्ययों की संयोजना की जाती है। उदाहरण इस प्रकार है:- तृतीया विभक्ति बहुवचन:- त्रिभिः कृतम्=तीहिं कयं अर्थात् तीन द्वारा किया गया है। पञ्चमी बहुवचनःत्रिभ्यः आगतः तीहिन्तो आगआ अर्थात् तीनों (के पास) से आया हुआ है। षष्ठी बहुवचन:- त्रयाणाम् धनम् तिण्हं धणं अर्थात् तीनों का धन और सप्तमी बहुवचनः- त्रिषु स्थितम्-तीसु ठिअं अर्थात् तीनों पर स्थित है।
त्रिभिः संस्कृत तृतीया बहुवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम (और विशेषण) रूप है। इसका प्राकृत रूप तीहिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-११८ से मूल संस्कृत शब्द 'त्रि' के स्थान पर प्राकृत में 'ती' अंग रूप की आदेश प्राप्ति और ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन मे प्राप्तांग 'ती' में संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर 'तीहिं रूप सिद्ध हो जाता है।
कयं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२६ में की गई है।
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