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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 23 हुआ है। षष्ठी विभक्ति के एकवचन का दृष्टान्तः- बुद्धयाः अथवा धेन्वाः समृद्धिः बुद्धीअ अथवा घेणूअ समिद्धी अर्थात् बुद्धि की अथवा गाय की समृद्धि है। इन उदाहरणों से प्रतीत होता है कि इकारान्त और उकारान्त स्त्रीलिंग वाले शब्दों में 'ङसि' और 'ङस्' के स्थान पर 'णो आदेश प्राप्त प्रत्यय का अभाव होता है।
प्रश्नः- 'इकारान्त' और 'उकारान्त' ऐसे शब्दों का उल्लेख क्यों किया गया है?
उत्तर:- इकारान्त और उकारान्त के अतिरिक्त आकारान्त तथा अकारान्त शब्द भी होते हैं; इनमें भी 'ङसि' और 'ङस्' प्रत्ययों की प्राप्ति होती है; परन्तु जैसे इकारान्त और उकारान्त में 'ङसि' और 'ङस्' के स्थान पर 'णो' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है; वैसी 'णो' आदेश प्राप्ति 'आकारान्त' और 'अकारान्त' में नहीं होती है; ऐसा भेद प्रदर्शित करने के लिए ही वृत्ति में 'इकारान्त' और 'उकारान्त' जैसे शब्दों का उल्लेख करना पड़ा है। जैसे:- कमलाया:-कमलाओ अर्थात् लक्ष्मी से और कमलस्य कमलस्स अर्थात् कमल का। इन उदाहरणों से 'सि' और 'डस् प्रत्ययों की प्राप्ति हुई है परन्तु ऐसा होने पर भी प्राप्त प्रत्ययों ङसि और 'ङस्' के स्थान पर 'णो' आदेश प्राप्ति होती है। ऐसा विधान सिद्ध हुआ।
गिरेः संस्कृत एकवचनात्मक पंचम्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप गिरिणो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२३ से मूल शब्द 'गिरि' में संस्कृत पंचमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'असि' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' आदेश की प्राप्ति होकर गिरिणो रूप सिद्ध हो जाता है।
तरोः संस्कृत एकवचनान्त पंचम्यन्त रूप है इसका प्राकृत रूप तरुणो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२३ से मूल शब्द 'तरु' में संस्कृत पंचमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'ङसि' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' आदेश की प्राप्ति होकर तरुणो रूप सिद्ध हो जाता है।
दघ्नः संस्कृत एकवचनान्त पंचम्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप दहिणो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से मूल शब्द 'दधि' में स्थित 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; और ३-२३ से प्राप्त रूप 'दहि' में संस्कृत पंचमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'ङसि' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'णो' आदेश की प्राप्ति होकर दहिणो रूप सिद्ध हो जाता है। ___ मधुनः संस्कृत एकवचनान्त पंचम्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप महुणो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२३ से प्राप्त रूप 'महु में संस्कृत पंचमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में ‘णो' आदेश की प्राप्ति होकर महुणो रूप सिद्ध हो जाता है।
आगओ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२०९ में की गई है। विकारः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विआरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप विसर्ग के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विआरो रूप सिद्ध हो जाता है।
गिरेः संस्कृत एकवचनान्त पंचम्यन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप गिरीओ, गिरीउ और गिरीहिन्तो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१२ से मूल शब्द 'गिरि' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति और ३-८ में संस्कृत पंचमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'दो-ओ', 'दु-उ' और 'हिन्तो' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से तीनों रूप गिरीओ, गिरीउ और गिरीहिन्तो सिद्ध हो जाते हैं।
तरोः- संस्कृत एकवचनान्त पंचम्यन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप तरूओ, तरूउ और तरूहिन्तो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१२ से मूल शब्द 'तरू' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर'उको दीर्घ स्वर 'ऊ की प्राप्ति और ३-८ से संस्कृतीय पंचमी विभक्ति के एकवचन में प्राप्त प्रत्यय 'ङसि के स्थानीय अस्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'दो-ओ', 'दु=उ' और 'हिन्तो' प्रत्ययों की प्राप्ति होकर क्रम से तीनों रूप तरुओ, तरुङ, और तरूहिन्तो सिद्ध हो जाते हैं।
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