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________________ 250 : प्राकृत व्याकरण से 'अदृ' धातु रूप की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'कढ' की भी प्राप्ति होगी। जैसे:- क्वथति = अट्टइ अथवा कढइ= वह क्वाथ करता है वह उबालता है अथवा वह पकाती है ।४-११९ ।। ग्रन्थेर्गण्ठः ।।४ - १२०।। ग्रन्थेर्गण्ठ इत्यादेशो वा भवति ।। गण्ठ । गण्ठी ॥ अर्थः- ‘गूँथना, रचना, बनना' अर्थक संस्कृत धातु 'ग्रन्थ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'गंठ' (धातु) रूप की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में 'गंथ' की भी प्राप्ति होगी। जैसे:- ग्रथ्नाति = गण्ठइ अथवा गंथ = वह गूँथती हैं अथवा वह रचना करता है। संस्कृत स्त्रीलिंग संज्ञा शब्द 'ग्रन्थि' का प्राकृत रूपान्तर 'गंठी' होगा। 'गंठी' का तात्पर्य है ' गाँठ अथवा 'जोड़' । 'गण्ठ' धातु से ही 'गंठी' शब्द का निर्माण हुआ है । । ४ - १२० ।। मन्थेर्घुसल - विरोलौ । । ४ - १२१ ।। मन्थेर्घुसल विरोल इत्यादेशौ वा भवतः ।। घुसलइ । विरोलइ । मन्थइ । अर्थः- 'मथना, विलोड़ना करना' अर्थक संस्कृत धातु 'मथ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'घुसल और विरोल' ऐसे दो धातु रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'ग्रन्थ' की भी प्राप्ति होगी। जैसे:- मन्थति-घुसलइ, विरोलइ अथवा मन्थइ-वह मथता है, वह मर्दन करता है अथवा वह विलोड़न करती है।।४ - १२१ ।। ह्लादेरवअच्छः ।।४-१२२।। ह्लादते र्ण्यन्तस्याण्यन्तस्य च अवअच्छ इत्यादेशो भवति ।। अवअच्छइ । ह्लादयति वा । । इकारो ण्यन्तस्यापि परिग्रहार्थः ॥ अर्थः- ‘आनन्द पाना अथवा खुश होना' अर्थक संस्कृत धातु 'हाद' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'सामान्य कालवाचक क्रिया रूप में' अथवा 'प्रेरणार्थक वाचक क्रिया रूप में दोनों ही स्थितियों में केवल 'अवअच्छ' धातु रूप की आदेश प्राप्ति होती है। ‘अप्रेरणार्थक क्रियावाचक रूप' का उदाहरण यों है:- ह्लादते = अव अच्छइ = वह आनन्द पाता है, वह खुश होती है। प्रेरणार्थक क्रियावाचक रूप का दृष्टान्त इस प्रकार से है:- ह्लादयति-अवअच्छइ-वह आनन्द कराता है, वह खुश कराती है। यों दोनों स्थितियों में प्राकृत भाषा में उपर्युक्त रीति से केवल एक ही धातु रूप होता है। 'इकार' उच्चारण 'सूत्र प्रक्रिया' में प्रेरणार्थक प्रत्यय 'णि' का बोधक अथवा संग्राहक माना जाता है; ऐसा ध्यान में रखा जाना चाहिये ।। ४-१२२।। नेः सदो मज्जः ||४-१२३।। निपूर्वस्य सदो मज्ज इत्ज्यादेशो भवति ।। अत्ता एत्थ मज्ज || अर्थः- ‘नि' उपसर्ग सहित संस्कृत धातु 'सद्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'मज्ज' धातु रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- आत्मा अत्र निसीदति = अत्ता एत्थ णुमज्जइ - आत्मा यहां पर बैठती है ।।४ - १२३ ॥ छिदेर्दुहाव- णिच्छल्ल - णिज्झौड - णिव्वर - णिल्लूर-लूराः ।।४-१२४ ॥ छिदेरेते षडादेशा वा भवन्ति ।। दुहावइ । णिच्छल्लइ । णिज्झौड । णिव्वर । पिल्लू-रइ । लूर | पक्षे । छिन्दइ || अर्थः- 'छेदना, खण्डित करना' अर्थक संस्कृत धात, 'छिद्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से छह धातु रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:- (१) दुहाव, (२) णिच्छल्ल, (३) णिज्झोड, (४) णिव्वर, (५) पिल्लूर और (६) लूर । वैकल्पिक पक्ष होने से 'छिंद' की भी प्राप्ति होगी। उदाहरण क्रम से यों हैं:- छिनत्ति = (१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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