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________________ 198 : प्राकृत व्याकरण देवेन्द्रः=देव+ इन्द्रः संस्कृत का रूप है। इसका प्राकृत रूप देविन्दो होता है। इसमें सूत्र - सख्या १-१० से तत्पुरुष समासात्मक शब्द देवेन्द्र की संधि भेद करने से प्राप्त स्वतंत्र शब्द 'देव' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के आगे रहे हुए शब्द 'इन्द्र' में स्थित आदि स्वर 'इ' का सद्भाव होने के कारण से लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त शब्द 'देव' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'व्' के साथ में आगे रहे हुए शब्द 'इन्द्र' में स्थित आदि स्वर 'इ' की संधि; २७९ से 'द्र' में स्थित व्यंजन 'र्' का लोप और ३-२ से प्राप्तांग 'देविन्द' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन के अर्थ में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत पद देविन्दो सिद्ध हो जाता है। 'इणं' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-८५ में की गई है। अब्रवीत् संस्कृत का सकर्मक रूप है। इसका आर्ष-प्राकृत रूप अब्बवी होता है। इसमें सूत्र- संख्या २- ७९ से 'ब्र' में स्थित व्यंजन र्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र्' के पश्चात् शेष रहे हुए व्यंजन वर्ण 'ब' को द्वित्व 'ब्ब की प्राप्ति और १-११ से पदान्त हलन्त व्यजंन 'त्' का लोप होकर अब्बवी रूप सिद्ध हो जाता है। ३-१६२।। व्यञ्जनादीअः ।। ३-१६३।। व्यञ्जनान्ताद्धातोः परस्य भूतार्थस्याद्यतन्यादि प्रत्ययस्य ईअ इत्यादेशो भवति।। हुवीअ। अभूत्। अभवत् । बभूवेत्यर्थः।। एवं अच्छीअ । आसिष्ट । आस्त । आसांचक्रे वा ।। गेण्हीअ । अगृहीत्। अगृह्णत्। जग्राह वा ।। अर्थः- प्राकृत भाषा में पाई जाने वाली धातुओं में संस्कृत के समान गण-भेद नहीं होता है; परन्तु फिर भी प्राकृत धातुएँ दो भेदों में विभाजित हैं; कुछ व्यंजनान्त होती हैं तो कुछ स्वरान्त होती है; तदनुसार भूतकाल के अर्थ में प्राप्त प्राकृत-प्रत्ययों में भेद पाया जाता है। इस प्रकार के विधि-विधान से स्वरान्त धातुओं में भूतकाल के अर्थ में प्राप्त प्राकृत-प्रत्ययों का सूत्र- संख्या ३-१६२ में वर्णन किया जा चुका है; अब व्यञ्जनान्त धातुओं के लिये भतू - काल के अर्थ में प्राप्त प्राकृत-प्रत्य का उल्लेख इस सूत्र से किया जा रहा है। यह तो पहले ही लिखा जा चुका है कि संस्कृत भाषा में भूतकाल के अर्थ में जिस तरह से तीन लकारों का -'लुङ् -लङ्-लिट्' अर्थात् ' अद्यतन, ह्यस्तन अथवा अनद्यतन और परोक्ष' का विधान है, वैसा विधान प्राकृत भाषा में नहीं पाया जाता है; एवं इन लकारों के तीनों पुरुषों के तीनों वचनों में जिस प्रकार से भिन्न-भिन्न प्रत्यय पाये जाते हैं वैसी सभी प्रकार की विभिन्नताओं का तथा प्रत्ययों का भेद प्राकृत भाषा में नहीं पाया जाता है; अतएव संक्षिप्त रूप से इस सूत्र में यही बतलाया गया है कि प्राकृत भाषा में पाई जाने वाली व्यञ्जनान्त धातुओं में उनके मूल रूप के साथ में ही किसी भी प्रकार के भूतकाल के अर्थ में और किसी भी पुरुष के किसी भी वचन के अर्थ में केवल एक ही प्रत्यय 'ईअ' की संयोजना कर देने से इष्ट भूतकाल अर्थक और इष्ट पुरुष के इष्टवचन अर्थक प्राकृत क्रियापद का रूप बन जाता है। प्राकृत में भूतकाल के अर्थ में व्यंजनान्त धातुओं में 'इस' प्राप्त प्रत्यय 'ईअ' को संस्कृत में भूतकाल के अर्थ में प्राप्त सभी प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर आदेश प्राप्त प्रत्यय समझना चाहिये। इस विषयक उदाहरण इस प्रकार हैं: संस्कृत-रूप हिन्दी- अर्थ १ अभूत् (आदि नव रूप; तीनों पुरुषों में और तीनों वचनों में; लुङ्लकार में) २ अभवत् (आदि नव रूप; तीनों पुरुषों में और तीनों वचनों में; लङ्लकार में) ३ बभूव (आदि नव रूप; तीनों पुरुषों में और तीनों वचनों में; लिट्लकार में) १ आसिष्ठ (आदि नव रूप; तीनों पुरुषों में और तीनों अच्छीअ वचनों में; लुङ्लकार में) २ आस्त (आदि नव रूप; तीनों पुरुषों में और तीनों वचनों में; लङ्लकार में) प्राकृत रूपान्तर हुवीअ Jain Education International For Private & Personal Use Only मैं अथवा हम; तू अथवा तुम और वह अथवा वे हुए; हुए थे और हो चुके थे। मै अथवा हम; तू अथवा तुम और वह अथवा वे बैठे; बैठे थे और बैठ चुके थे। www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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