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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 83 (सूत्र - संख्या ३ - १० के अनुसार) 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है और 'जस्' प्रत्यय का अभाव है; तदनुसार 'जस्' प्रत्यय की अभाव - स्थित होने से तद्- स्थानीय 'डे=ऐ' आदेश प्राप्त प्रत्यय का भी अभाव है; यों यह सिद्धान्तात्मक निष्कर्ष निकलता है कि केवल 'जस्' प्रत्यय के स्थान पर ही प्राकृत में 'डे-ए' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होती है; अन्यत्र नहीं । ऐसी भावनात्मक स्थिति को प्रकट करने के लिये ही मूल सूत्र में 'जस्' प्रत्यय का उल्लेख करना ग्रन्थकर्त्ता ने आवश्यक समझा है; जो कि युक्ति-संगत है एवं न्यायोचित है। सर्वे संस्कृत प्रथमा बहुवचन सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप सव्वे होता है। इसमें सूत्र - संख्या - २ - ७९ से 'र्'का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र्' के पश्चात् रहे हुए 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति और ३-५८ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'डे-ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सव्वे रूप सिद्ध हो जाता है। अन्ये संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप अन्ने होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७८ से 'य्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'य्' के पश्चात् रहे हुए 'न' को द्वित्व 'न्न' की प्राप्ति और ३-५८ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'डे= ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अन्ने रूप सिद्ध हो जाता है। 'जे' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या २ - २१७ में की गई है। 'ते' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १ - २६९ में की गई है। 'के' संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त सर्वाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'के' होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-७१ से मूल संस्कृत शब्द 'किम्' के स्थान पर 'क' रूप की प्राप्ति ओर ३-५८ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'डे= ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'के' रूप सिद्ध हो जाता है। 'एके' संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप एक्के होता है। इसमें सूत्र - संख्या २-९९ से 'क' को द्वित्त्व 'क्क' की प्राप्ति और ३-५८ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'डे= ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'एक्के' रूप सिद्ध हो जाता है। कतरे संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त सर्वनाम रूप है इसका प्राकृत रूप कयरे होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'त' का लोपः १ - १८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और ३-५८ से प्राप्तांग 'कयर' में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'डे= ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कर रूप सिद्ध हो जाता है। इतरे संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप इयरे होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १७७ से 'त्' का लोप; १ - १८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और ३-५८ से प्राप्तांग 'इयर' में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय जस् स्थान पर प्राकृत में 'डे= ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर इयरे रूप सिद्ध हो जाता है। 'एए' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ३-४ में की गई है। सर्वाः संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त स्त्रीलिंगात्मक सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप सव्वाओ होता है। इसमें सूत्र - संख्या २- ७९ से मूल संस्कृत शब्द 'सर्व' में स्थित 'र्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति; ३ - ३२ से और ४-४४८ के निर्देश से पुल्लिंगत्व से स्त्रीलिंगत्व के निर्माणार्थ प्राप्तांग 'सव्व' में 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३ - २७ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर प्राकृत 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सव्वाओ रूप सिद्ध हो जाता है। ऋद्धयः संस्कृत प्रथम बहुवचनान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप रिद्धीओ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १ - १४० से मूल संस्कृत शब्द 'ऋद्धि' में स्थित 'ऋ' के स्थान पर 'रि' की प्राप्ति और ३- २७ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति कराते हुए 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रिद्धीओ रूप सिद्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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