________________
182 : प्राकृत व्याकरण
प्रश्न:- धातु में रहे हुए आदि 'अकार' को ही 'आकार' की प्राप्ति होती है; ऐसा भी क्यों कहा गया है?
उत्तरः- धातु में रहा हुआ आदि 'अकार' यदि किसी भी प्रकार से अस्पष्ट हो अथवा व्यवधान ग्रस्त हो अथवा शब्द मध्य में स्थित हो तो उस 'अकार' को भी 'आकार' की प्राप्ति नहीं होगी; तात्पर्य यह है कि स्पष्ट रूप से और व्यवधान रहित रूप से अवस्थित 'अकार' को ही 'आकार' की प्राप्ति होती है; अन्यथा नहीं जैसे:- संग्रामयति-संगामेइ-वह लड़ाई कराता है। इस उदाहरण मे 'संग्राम' धातु में आदि 'अकार' की प्राप्ति नहीं हुई है। तदनुसार व्यवधान रहित तथा स्पष्ट रूप से रहे हुए आदि 'अकार' को ही 'आकार' की प्राप्ति होती है; यह तात्पर्य ही सूत्र में रहे, हुए 'आदि' शब्द से प्रतिध्वनित होता है।
यदि कोई ' अकार' धातु के अन्त में आ जाय, तो उस 'अकार' को भी 'आकार' की प्राप्ति नहीं होवे इसलिये भी 'आदि' शब्द का उल्लेख किया गया है। जैसे:- कारितम् = कारिअं कराया हुआ; इस उदाहरण में अन्य में ' अकार' आया हुआ है; परन्तु इसको 'आकार' की प्राप्ति नहीं हो सकती है; इन सभी उपर्युक्त कारणों से सूत्र में 'आदि' शब्द के उल्लेख करने की आवश्यकता पड़ी है। जो कि मनन करने योग्य है।
प्रश्नः - 'अकार' को ही 'आकार' की प्राप्ति होती है; ऐसा भी क्यों कहा गया है?
उत्तरः- यदि धातु के आदि में 'अकार' स्वर नहीं होकर कोई दूसरा ही स्वर हो तो उस स्वर को 'आकार' की प्राप्ति नहीं होगी। 'आकार' की प्राप्ति का सौभाग्य केवल 'अकार' के लिये ही है; अन्य किसी भी स्वर के लिये नहीं है; ऐसा प्रदर्शित करने के लिये ही 'अकार' स्वर का उल्लेख मूल सूत्र में करना ग्रन्थकार ने आवश्यक समझा है। जैसे:दोषयति = दूसेइ = वह दोष दिलाता है; इस उदाहरण में 'दूस' धातु में आदि में 'अकार' नहीं होकर 'उकार' का सद्भाव है; तदनुसार णिजन्त- बोधक रूप का सद्भाव होने पर भी एवं णिजन्त-बोधक-प्रत्यय 'एत्' का सद्भाव होने पर भी इस धातु में आदि-रूप में स्थित 'उकार' को 'आकार' की प्राप्ति नहीं हुई है; इस पर से यही निष्कर्ष निकलता है कि धातु में यदि 'अकार' ही आदि रूप से तथा स्पष्ट से और अव्यवधान रूप से स्थित हो तो उसी को 'आकार' की प्राप्ति होती है; अन्य किसी भी स्वर को 'आकार' की प्राप्ति नहीं हो सकती ।
प्राकृत भाषा के कोई-कोई व्याकरणाचार्य ऐसा भी कहते हैं कि यदि धातु में णिजन्त- बोधक प्रत्यय ' आवे और आवि' का सद्भाव हो तथा उस अवस्था में धातु के आदि में 'अकार' स्वर रहा हुआ हो तो उस 'अकार' स्वर को 'आकार' की प्राप्ति हो जाती है। जैसे:- कारयति - कारावेइ = वह कराता है। हासितः जनः श्यामलया -हासाविओ जणो सामलीए - श्यामा (स्त्री) से (वह) पुरुष हँसाया गया है। इन उदाहरणों में मूल प्राकृत धातु 'कर और हस' में 'णिजन्त बोधक प्रत्यय-आवे और आवि' का सद्भाव होने पर इन धातु में स्थित आदि 'अकार' स्वर को 'आकार' में परिणत कर दिया गया है। इस प्रकार 'आवे और ‘आवि' णिजन्त बोधक प्रत्ययों के सद्भाव में धातुस्थ आदि 'अकार' को 'आकार' में परिणत कर देने का वैकल्पिक रूप अथवा आर्ष रूप अन्यत्र भी जान लेना चाहिये।
पातयति संस्कृत का प्रेरणार्थक रूप है। इसका प्राकृत रूप पाडइ होता है। इसमें सूत्र - संख्या - ४ - २१९ से मूल संस्कृत-धातु 'पत्' में स्थित अन्त्य व्यंजन 'त्' के स्थान पर 'ड्' की प्राप्ति; ३ - १५३ से प्राप्तांग 'पड्' में स्थित आदि 'अकार' को आगे णिजन्त - बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से 'आकार' की प्राप्ति; ३ - १४९ से प्राप्तांग 'पाड्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'ड्' में णिजन्तबोधक प्रत्यय ' अत्-अ' की प्राप्ति और ३- १३९ से णिजन्त-भाव वाले प्राप्तांग 'पाड' में वर्तमानकाल के प्रथमपुरुष के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत क्रियापद का रूप पाडइ सिद्ध हो जाता है।
मारयति संस्कृत का प्रेरणार्थक रूप है। इसका प्राकृत रूप मारइ होता है। इसमें सूत्र - संख्या- ४ - २३४ से मूल संस्कृत-धातु 'मृ' में स्थित अन्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'अर' की प्राप्ति; ३ - १५३ से प्राप्तांग 'मर' में स्थित आदि 'अकार' के स्थान पर आगे णिजन्त बोधक प्रत्यय 'अत्=अ' का सद्भाव होने से 'आकार' की प्राप्ति; १ - १० से प्राप्तांग 'मार' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के आगे णिजन्त बोधक प्रत्यय ' अत्=अ' की प्राप्ति होने से लोप; ३ - १४९ से प्राप्तांग हलन्त 'मार' में णिजन्त बोधक प्रत्यय ' अत्-अ' की प्राप्ति और ३- १३९ से णिजन्त-भाव वाले प्राप्तांग ‘मार' में वर्तमानकाल
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org