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80 : प्राकृत व्याकरण सूत्र-संख्या ३-३ के अनुसार अथवा ३-१७ से मूल संस्कृत शब्द 'उक्षन्' में स्थित 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८१ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व'छ्छ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; ३-५६ से अन्त्य 'अन्' अवयव के स्थान पर 'आण' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्राप्तांग अकारान्त रूप'उच्छाण' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डोओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप उच्छाणो सिद्ध हो जाता है।
उच्छा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-१७ में की गई है। ग्रावा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप गावाणो और गावा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-७९ से मूल संस्कृत शब्द 'ग्रावन्' में स्थित 'र' का लोप; ३-५६ से अन्त्य 'अन्' अवयव के स्थान पर 'आण' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्राप्तांग अकारान्त रूप गावाण में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम-रूप गावाणो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(ग्रावन्=) गावा में सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप; ३-४९ से (तथा ३-५६ के निर्देश से) प्राप्तांग अकारान्त रूप 'गाव' में स्थित अन्त्य 'अ'के आगे प्रथमा एकवचन (बोधक प्रत्यय)क
ने से 'आ' की प्राप्ति और १-११ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ४-४४८ के अनुसार संस्कृत प्रत्यय 'सि-स्' का प्राकृत में लोप होकर द्वितीय रूप गावा भी सिद्ध हो जाता है।
पूषा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप पूसाणो और पूसा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२६०से मूल संस्कृत शब्द 'पूषन्' में स्थित 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति;३-५६ से अन्त्य 'अन्' अवयव के स्थान पर 'आण' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्राप्तांग अकारान्त रूप-'पूसाण' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप पूसाणो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(पूषन्-) पूसा में सूत्र-संख्या १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप;३-४९ से (तथा ३-५६ के निर्देश से) प्राप्तांग अकारान्त रूप 'पूस' में स्थित अन्त्य 'अ' के आगे प्रथमा एकवचन (बोधक प्रत्यय) का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति और १-११ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन ४-४४८ के अनुसार संस्कृत प्रत्यय 'सि-स्' का प्राकृत में लोप होकर द्वितीय रूप पूसा भी सिद्ध हो जाता है।
तक्षा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप तक्खाणो और तक्खा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-३ से मूल संस्कृत शब्द 'तक्षन्' में स्थित 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-५९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व'ख्ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क्' की प्राप्ति; ३-५६ से अन्त्य 'अन्' अवयव के स्थान पर 'आण आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्राप्तांग अकारान्त रूप 'तक्खाण' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप तक्खाणो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(तक्षन्-तक्षा=) तक्खा में सूत्र-संख्या २-३ से मूल संस्कृत शब्द 'तक्षन्' में स्थित 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व'ख' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'न्' का लोप; ३-४९ से (तथा ३-५६ के निर्देश से) प्राप्तांग अकारान्त रूप 'तक्ख' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'आगे प्रथमा एकवचन (बोधक प्रत्यय) का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति और १-११ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ४-४४८ के अनुसार संस्कृत प्रत्यय 'सि-स्' का प्राकृत में लोप होकर द्वितीय रूप तक्खा भी सिद्ध हो जाता है।
मूर्धा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप-मुद्धाणो और मुद्धा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-८४ से मूल संस्कृत शब्द 'मूर्धन्' में स्थित दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ध्' को द्वित्व'ध' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ध्' के स्थान पर 'द्' की प्राप्ति, उपर्युक्त ३-५६ से अन्त्य 'अन्' अवयव के स्थान पर 'आण' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्राप्तांग अकारान्त रूप 'मुद्धाण' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप मुद्धाणो सिद्ध हो जाता है। Jain Education International
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