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________________ 50 : प्राकृत व्याकरण ऋतोद्वा।। ३-३९!! ऋकारान्तस्यामन्त्रणे सौ परे अकारोऽन्तादेशो वा भवति।। हे पितः। हे पि।। हे दातः हे दाय। पक्षे। हे पिअरं। हे दायार॥ अर्थः- ऋकारान्त शब्दों के (प्राकृत-रूपान्तर में) संबोधन के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' का विधानुसार लोप होकर शब्दान्त्य 'स्वर सहित व्यञ्जन' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'अ' आदेश की प्राप्ति होती है जैसे:-हे पितः= हे पिअ और वैकल्पिक पक्ष में हे पिअरं। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है :- हे दातः हे दाय! और वैकल्पिक पक्ष में हे दायार! होता है। __ हे पितः! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप हे पिअ! और हे पिअरं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या-३-३७ से 'स्वर-सहित व्यञ्जन्त' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य व्यञ्जन रूप विसर्ग का लोप होकर "हे पिअ"! रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या ३-४० से 'स्वर-सहित व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'अर' आदेश की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य हलन्त रूप विसर्ग का लोप होकर द्वितीय रूप "हे पिअरं" सिद्ध हो जाता है। हे दातः! संस्कृत संबोधन के एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप हे दाय! और हे दायार! होते हैं। इनमें प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-३९ से 'स्वर' सहित व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'अ की प्राप्ति; १-१८० से प्राप्त हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन रूप विसर्ग का लोप होकर प्रथम रूप 'हे' दाय!' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-१७७ से मूल संस्कृत शब्द 'दातृ' में स्थित 'त' का लोप; ३-४५ से संबोधन के एकवचन में शेष 'अ' के स्थान पर 'आर' आदेश की प्राप्ति; और १-१८० से प्राप्त 'आर' में स्थित 'आ' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'हे दायार!" भी सिद्ध हो जाता है।।३-३९।। नाम्न्य रं वा।।३-४०।। ऋदन्तस्यामन्त्रणे सौ परे नाम्नि संज्ञायां विषये अरं इति अन्तादेशो वा भवति ।। हे पितः। हे पिअरं पक्षे। हे पि।। नाम्नीति किम्। हे कर्तः। हे कत्तार ।। अर्थ:- ऋकारान्त शब्दों के (प्राकृत-रूपान्तर में) संबोधन के एकवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' का विधानानुसार लोप होकर अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'अर' आदेश की प्राप्ति होती है, परन्तु इसमें एक शर्त यह है कि ऐसे ऋकारान्त शब्द रूढ़ संज्ञा रूप होने चाहिये; गुणवाचक ऋकारान्त संज्ञा वाले अथवा क्रियावाचक ऋकारान्त संज्ञा वाले शब्दों के संबोधन के एकवचन में इन सूत्रानुसार प्राप्त 'अर' आदेश की प्राप्ति नहीं होती। इस प्रकार की विशेषता सूत्र में उल्लिखित 'नाम्नि पद के आधार से समझनी चाहिये। जैसेः हे पितः हे पिअरं। वैकल्पिक पक्ष होने से 'हे पिअ' भी होता है। प्रश्न:- रूढ़ संज्ञा वाले ऋकारान्त शब्दों के संबोधन के एकवचन में ही 'अर' आदेश की प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों गया है? उत्तर:- जो रूढ़ संज्ञा वाले नहीं होकर गुण वाचक अथवा क्रिया वाचक ऋकारान्त संज्ञा रूप शब्द है; उनमें संबोधन के एकवचन में 'अर' आदेश प्राप्ति नहीं होती है। ऐसी विशेषता बतलाने के लिये ही 'नाम्नि पद का उल्लेख किया जाकर संबोधन के एकवचन में 'अरं आदेश प्राप्ति का विधान रूढ़-संज्ञा वाले शब्दों के लिये ही निश्चित कर दिया गया है। जैसे कि क्रिया वाचक संज्ञा के संबोधन के एकवचन का उदाहरण इस प्रकार है:- हे कर्तृः हे कत्तार। 'हे पिअर' के समान 'हे कअरं रूप नहीं बनता है यों रूढ़ वाचक संज्ञा में क्रिया वाचक अथवा गुण-वाचक संज्ञा में 'सबोधन एकवचन की विशेषता' समझ लेनी चाहिये। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International.
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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