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प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 237
रजेराव ॥४-४९।। रञ्जय॑न्तस्य राव इत्यादेशो वा भवति।। रावेइ। रजेइ।।
अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय ‘ण्यन्त' सहित संस्कृत धातु रञ्ज के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'राव' की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में रज की भी प्राप्ति होगी। जैसे- रञ्जयति रावेइ अथवा रजेइ-वह रंग लगाता है, वह खुशी करता है।।४-४९।।
घटे: परिवाडः।।४-५०।। घटेर्ण्यन्तस्य परिवाड इत्यादेशो वा भवति।। परिवाडेइ। घडेइ।।
अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय ‘ण्यन्त' सहित संस्कृत-धातु 'घट्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'परिवाड' की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में घड की प्राप्ति भी होगी। जैसे:-घटयति-परिवाडेइ अथवा घडेइ-वह निर्माण करवाता है। वह रचवाता है ।। ४-५०॥
वेष्टेः परिआलः ॥ ४-५१।। वेष्टेय॑न्तस्य परिआल इत्यादेशो वा भवति।। परिआलेइ। वेढेइ।।
अर्थः-प्रेरणार्थक प्रत्यय ‘ण्यन्त' सहित संस्कृत-धातु 'वेष्ट् के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'परिआल' की आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में वेढ की भी प्राप्ति होगी। जैसे :- वेष्टयति-परिआलेइ अथवा वेढेइ-वह लपेटता है अथवा लपेटाता है ।।४-५१।।
क्रियः किणो वेस्तु क्के च।। ४-५२।। णेरिति निवृत्तम्। क्रीणातेः किण इत्यादेशो भवति। वेः परस्य तु द्विरुक्तःकेश्चकारात्किणश्च भवति।। किणइ। विक्केइ। विक्किणइ।। __ अर्थः- प्रेरणार्थक प्रत्यय ‘ण्यन्त' संबंधी प्रक्रिया एवं इससे संबंधित आदेश प्राप्ति की यहाँ से समाप्ति हो गई है। अब केवल सामान्य रूप से होने वाली आदेश प्राप्ति का ही वर्णन किया जावेगा।
खरीदने अर्थक संस्कृत-धातु 'क्रीणा' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'किण' आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- क्रीणाति अथवा क्रीणीते किणइ वह खरीदता है।
जिस समय में क्री धातु के साथ में 'वि' उपसर्ग जुड़ा हुआ होता है तब प्राकृत भाषा में आदेश प्राप्त किण धातु में रहे हुए 'कि' को द्वित्व 'क्के' की प्राप्ति हो जाती है। जैसे-विक्रीणाति-विक्केइ-वह बेचता है। यह ध्यान में रहे कि द्वित्व 'क्के की प्राप्ति होने पर 'विकिण' धातु में रहे हुए 'णकार' का लोप हो जाता है। ___ मूल सूत्र में 'चकार' दिया हुआ है, जिसका तात्पर्य यह है कि कभी-कभी 'विकिण' धातु में रहे हुए 'कि' को द्वित्व 'क्कि' की प्राप्ति होकर 'णकार' का लोप भी नहीं होता है। जैसे-विक्रीणाति-विक्किणइ-वह बेचता है ।।४-५२।।
भियो भा-बीहौ ॥४-५३।। बिभेतेरेतावादेशो भवतः।। भाइ। भाइ बीहइ। बीहिआ। बहुलाधिकाराद् भीओ।
अर्थः-डरने अर्थक संस्कृत धातु 'भो' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'भा और बोह' की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- भयति-भाई-वह डरता है; बिभेति बीहइ वह डरता है। भीतं भाइअं और बीहिअं-हरा हुआ अथवा डरे हुए को।
बहुलं सूत्र के अधिकार से 'भीतः' विशेषण का रूपान्तर भीओ भी होता है। भीओ का अर्थ 'डरा हुआ' ऐसा है।४-५३॥
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