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________________ प्रियोदया हिन्दी व्याख्या सहित : 129 'मया' संस्कृत तृतीया एकवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप 'मि, मे, मम, ममए, ममाइ, मइ, मयाइ और णे होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१०९ से मूल संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अस्मद् में तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्रत्यय टा=आ को संप्राप्ति होने पर प्राप्त रूप 'मया' के स्थान पर प्राकृत में उक्त नव रूपों की क्रम से आदेश प्राप्ति होकर ये नव ही रूप 'मि, मे, मम, ममए, ममाइ, मइ, मए, मयाइ और णे' सिद्ध हो जाते हैं। कयं क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२६ में की गई है।।३-१०९।। अम्हेहि अम्हाहि अम्ह अम्हे णे भिसा। ३-११०॥ अस्मदो भिसा सह एते पञ्चादेशा भवन्ति।। अम्हेहि अम्हाहि अम्ह अम्हे णे कयं।। अर्थः- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'अस्मद्' के तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' की संयोजना होने पर 'मूल शब्द और प्रत्यय दोनों के स्थान पर आदेश प्राप्त संस्कृत रूप 'अस्माभिः' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से पांच रूपों की आदेश प्राप्ति हुआ करती है। वे आदेश प्राप्त पांच रूप क्रम से इस प्रकार हैं:- (अस्माभिः=) अम्हेहि, अम्हाहि, अम्ह, अम्हे और णे। उदाहरण इस प्रकार हैं:- अस्माभिः कृतम् अम्हेहि, अम्हाहि, अम्ह, अम्हे, णे कयं अर्थात् हम सभी से अथवा हमारे से किया गया है। ____ अस्माभिः संस्कृत तृतीया बहुवचनान्त (त्रिलिंगात्मक) सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप अम्हेहि, अम्हाहि, अम्ह अम्हे और 'णे होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-११० से संस्कृत सर्वनाम शब्द अस्मद्, में तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'भिस्' की संयोजना होने पर प्राप्त रूप 'अस्माभिः' के स्थान पर प्राकृत में उक्त पांचों रूपों की क्रम से आदेश प्राप्ति होकर क्रम से ये पांचों रूप 'अम्हेहि, अम्हाहि, अम्ह, अम्हे और णे' सिद्ध हो जाते हैं। ‘कयं क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२६ में की गई है।।३-११०।। मइ-मम-मह-मज्झा ङसौ।। ३-१११।। अस्मदो उसौ पञ्चम्येकवचने परत एते चत्वार आदेशा भवन्ति।। उसेस्तु यथाप्राप्तमेव।। मइत्तो ममत्तो महत्तो, मज्झत्तो, आगओ।। मत्तो इति तु मत्त इत्यस्य। एवं दो-दु-हि-हिन्तो लुक्ष्वप्युदाहार्यम्॥ ___ अर्थः-संस्कृत सर्वनाम 'अस्मद्' के प्राकृत रूपान्तर में पंचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृत प्राप्तव्य प्रत्यय 'ङसि=अस्' के स्थान पर सूत्र-संख्या ३-८ के अनुसार प्राकृत में प्रत्यय 'त्तो, दो=ओ, दु-उ, हि, हिन्तो और लुक्' की क्रम से प्राप्ति होने पर 'अस्मद्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से चार अंग रूपों की प्राप्ति होती है। वे चारों अंग रूप क्रम से इस प्रकार हैं:-(अस्मद= ) मइ, मम, मह और मज्झ। इन प्राप्तांग चारों रूपों में से प्रत्येक रूप में पंचमी विभक्ति के एकवचनार्थ में क्रम से 'त्तो, दो ओ, दु-उ, हि, हिन्तो और लुक,' प्रत्ययों की प्राप्ति होने से पञ्चमी एकवचनार्थक रूपों की संख्या चौबीस होती है। जो कि क्रम से इस प्रकार है। 'मइ' के रूपः-(अस्मद् के मत् अथवा मद्=) मइत्तो, मईओ, मईउ, मईहि, मईहिन्तो और मई। (अर्थात् मुझ से) 'मम' के रूप-(सं-मत् अथवा मद्=) ममत्तो, ममाओ, ममाउ, ममाहि समाहिन्तो और ममा। (अर्थात् मुझ से)। 'मह' के रूप- (सं-मत् अथवा मद्-) महत्तो, महाओ, महाउ, महाहि, महाहिन्तो और महा। (अर्थात् मुझ से) मज्झ' के रूप- (सं-मत् अथवा मद्-) मज्झत्तो, मज्झाओ, मज्झाउ, मज्झाहि, मज्झा-हिन्तो और मज्झा। (अर्थात् मुझ से) वृत्ति में प्रदर्शित उदाहरण इस प्रकार है: मत् (मद्) आगतः=मइत्तो-ममत्तो-महत्तो-मज्झतो आगओ अर्थात् मेरे से- (मुझ से) आया हुआ है। ___ संस्कृत में 'मत्त' विशेषणात्मक एक शब्द है; जिसका अर्थ होता है-मस्त, पागल अथवा नशा किया हुआ; इस शब्द का प्राकृत-रूपान्तर भी 'मत्त' ही होता है; तदनुसार प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में सूत्र-संख्या ३-२ के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001943
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 2
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2006
Total Pages434
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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